Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 187
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५७३८-५७७४ वसुनृपदृष्टान्तः - अदत्तादानस्वरूपम् મળો जन्नाऽहिगारसंतिय-मज्जेहिं जट्टव्यमिति ससिस्साणं । यक्खाणियं अजेहिं, छयलेहिं इइ विमूढेणं तो नारएण भणियं, भण्णंति अजा तियरिसपरिवसिया । इह वीहियाऽऽदओ तेहिं, चेव जट्टव्यमाऽऽह गुरु ॥३९॥ नो पडियन्नमिमं प-व्यएण जाओ महं विसंवाओ । जिब्भच्छेयपइन्ना, क्या य जो जिप्पड़ याए ॥४०॥ सहपढिओ त्ति वसुनियो, एत्थ पमाणं क्या इय यवत्था । अह तज्जणणी भीया, सच्चगिरं नारयं नाउं ॥ ४१ ॥ धुवमिन्हिं मह पुत्तो, जीहच्छेएण पाविही मरणं । ता पन्नयेमि नरवड़ - मिड़ सा वसुमंदिरम्मि गया ॥४२॥ अब्भुट्ठिया य रन्ना, गुरुणो भज्ज ति तीए तो सिट्टो । एगंते से सव्यो, नारयपव्ययगयुत्तंतो "જો वसुणा य जंपियं अम्म!, कहसु किं एत्थ मज्झ किच्चं ति । तीए वृत्तं पुत्तो, जह जिणइ तहा करेज्जासु ॥४४॥ उयरोहसीलयाए, पडियन्नमिमं पि वसुनरिंदेण । बीयदिवसे य दोन्नि वि, पक्खा तस्संऽतियं पत्ता काऊण सच्चसावण-मडह भणियं नारएण भो राय ! | तुममिह धम्मतुला, तं पढमो सच्चवाईगं ता कहसु कहं गुरुणा, अजेहिं जट्टव्यमिह पवक्वायं । ताहे रन्ना परिचत - सच्चवाइत्तयाएण जंपियमऽजेहिं छगलेहिं, भद्द! जट्टव्यमिह पवक्खायं । एवं भणिए कुलदेव-याए अइकूडसक्खि ति कुवियाए पाडिऊणं, फालियसीहासणाओ सो निहओ । अन्ने वि भूमिवइणो, तप्पयपरिवत्तिणो अट्ठ पव्ययगो वि जणेणं, धिसिक्किओ दढमऽसच्चयाइ ति । मरिऊण य नरयम्मि उववण्णो वसुनरेंदो वि ॥५०॥ इयरो य सच्चवाइ ति नयरलोएहिं विहियसक्कारो । ससिसमदितिं कितिं, पत्तो सुरलोयलच्छिं च बीयं पावट्ठाणग-मेवं मोसाऽभिहाणमुवइ । एतो तइयमऽदत्ता - दाणऽभिहाणं पवक्खामि ॥४५॥ "જો ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५१॥ ॥५२॥ 66 अदत्तादानस्वरूपम्” ॥५४॥ ॥५५॥ ॥५७॥ રો पंको व्य जलं किट्टो व्य, दप्पणं चित्तभित्तिमिव धूमो । मइलेइ चित्तरयणं, परधणहरणस्स सरणं पि ॥५३॥ एयपसत्तो सत्तो, अविभावेऊण धम्मविद्धंसं । अवहत्थिऊण सप्पुरिस - सेवियं कुलववत्थं पि कित्तिकलंकं पि अपेहिऊण, अवहीरिऊण जीयं पि । गीयरयं हरिणो इय, पईवकलियं पयंगो व्य | बडिसाऽऽमिसं व मीणो, भमरो कमलं व करिवहूफरिसं । वणवारणो व्य पायो, परधणहरणं कुणइ सो य ॥ ५६ ॥ तज्जम्मे च्चिय पायइ, करकन्नच्छेयमऽच्छिनासं वा । करवत्तकिंतणं उत्ति-मंगपमुहंऽगभंगं वा परसंतियं हरिता अत्थं हरिसिज्जइ । नियजत्थे य । हरिए परेण सहसत्ति, सत्तिभिन्नो व्य होइ दुही ॥५८॥ लोओ वि कुणइ पक्खं, अवरज्झतस्स अन्नमऽवराहं । 2 नीयल्लया वि पक्खे, न होंति चोरिक्कसीलस्स ॥५९॥ अन्नं अवरज्झतस्स, देति नियए घरम्मि ओगासं । माया वि हु ओगासं, न देइ परदव्यहारिस्स ॥६०॥ जस्स य घरम्मि सो लहइ, अल्लियावं कांपि तं सहसा । पाडेड़ अइमहल्ले, अयसे दुक्खे महावसणे ॥ ६१ ॥ कहकहवि किंपि सुचिरेण, विविहआसाहिं संचिणइ दव्यं । इय जो जीयसमं तं हरेज्ज तत्तो वि को पायो ॥६२॥ संसारियसत्ताणं, पाणसमो सव्यहा इमो अत्थो । तेसिं च तं हरंतो, हरेइ तज्जीवियमऽहम्मो विहयम्मि उ अवहरिए, केवि छुहाए मरंति दीणमुहा । किवणप्पाया तप्पंति, केवि सोयऽग्गिणा अन्ने ॥६४॥ | पढमपसूर्यपि चउ - प्पयाऽऽइयं अवहरति निक्करुणा । जणणिविउत्ता तव्यच्छ-गा य दुहिया मरंति तओ ॥६५॥ एवं च हणइ पाणे, भासइ मोसं अदत्तहरणपरो । तो इहभवे वि पावड़, बहुविहवसणाणि मरणं च ॥६६॥ दारिद्दं भीरुतं, पियपुत्तकलतबंधुयोच्छेयं । एमाऽऽइए य दोसे, भवंडतरे तेन्नपावाओ ॥६७॥ ता भो ! भणामि सच्चं विवज्जणीयं खु परधणं सव्वं । परधणवियज्जणाओ, कुगई वि विवज्जिया दूरं ॥६८॥ अद्दत्तगहणसंजणिय - पावपब्भारभारिया संता । नरए पडंति जीवा, जले जहा लोहमयपिंडो अद्दत्ताऽऽदाणफलं, एयं नाऊण दारुणविवागं । तव्विरई कायव्या, अत्तहियनिहित्तचितेण परदव्य हरणबुद्धिं पि, जे न कुव्वंति सव्यहा जीवा । पुव्युत्तदोसजालं, मलंति ते वामपाएणं पायेंति सुदेवत्तं तत्तो सुकुलेसु माणुसतं च । लधुं च सुद्धधम्मं, आयहियम्मि पयट्टंति मणिकणगरयणधणसंचयड्ढ - कुललद्धमणुयजम्मस्स । तेन्नययपत्तपुन्नाऽणु-बंधिपुन्नस्स धन्नस्स गामे वा नगरे वा, खेत्ते व खले व अह अरन्ने वा । गेहे वा पंथे वा, राओ या दिवसओ या वि ॥ ७४ ॥ 1. निजार्थे = स्वधने । 2. नीयल्लया = निजकाः = स्वजनाः B | 3. स्तैन्यपापात् । 4. मलंति =मूद्रन्ति = नाशयन्ति ।, ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ ॥७२॥ ॥७३॥ 162

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