Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 176
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ५३४७-५३८३ चतुर्थःनिर्यामकद्वारम् . जं उवणीयं अइदुल्लहं पि, भोज्जं अकालपरिहीणं । तीए भणियं नाणेण, केण? पडियायरहिएण ॥४७॥ | धी! धी! मए अणज्जेण, कहमिमो केवली महासत्तो । आसाइओ ति सोगं, तो सूरी काउमाऽऽरद्धो ॥४८॥ मा मुणियर! कुण सोगं, अमुणिज्जतो हु केवली विजओ । पुव्यट्टिइं न भिंदइ, एवं तीए य पडिसिद्धो ॥४९॥ चिरसुचरियसामन्नो यि, किं न निव्वुइमऽहं लहिस्सामि । इइ संसयं कुणंतो य, तीए सूरी पुणो भणिओ ॥५०॥ |संदेहं कीस मुणीस!, कुणसि निव्वुइकएण जेण लहुँ । सुरसरियमुत्तरंतो, काहिसि कम्मक्खयं तुमऽवि ॥५१॥ एवं निसामिऊणं, सूरी नावाए आरुहिय गंगं । अइलंघिउं पवत्तो, परतीरगमाऽभिलासेण ॥५२॥ णवरं जतो जतो, स निसीयइ कम्मदोसओ सो सो । नावादेसो मज्जइ, सुरसरिसलिलम्मि अत्थाहे ॥५३॥ सव्वविणासं आसंकिऊण, निज्जायगेहिं तो खित्तो । अन्नियपुत्ताऽऽयरियो, नावाहितो सलिलमज्झे ॥५४॥ अह परमपसमरसपरिणयस्स, सुपसन्नचित्तवित्तिस्स । सव्वप्पणा निरंभिय-नीसेसाऽऽसवदुवारस्स ॥५५॥ दव्येणं भावेण य, परमं निस्संगयं उवगयस्स । सुविसुज्झमाणदढसक्क-झाणनिम्महियकम्मस्स ॥५६॥ जलसंथारगयस्स यि, अच्वंतनिरुद्धसव्वजोगस्स । मणवंछियऽत्थसिद्धी, जाया निव्वाणलाभेणं ॥५७॥ | एवं जलसंथारय-माऽऽसज्जऽन्नियसुओ समऽणुसिट्ठो । तससंथारगविसए य, संसिओ च्चिय चिलाइसुओ ॥५८॥ अन्नत्थ वि जो जम्मि, समभावा पाउणेज्ज पज्जते । सुसमाहिं सो सव्यो, नायव्यो तस्स संथारो ॥९॥ इय संथारगओ सो, अणुत्तरं तवसमाहिमाऽऽरुढो । पप्फोडतो विहरइ, बहुभवबाहार कम्म ॥६०॥ चक्कीण वि न य सुहं तं, न तं सुहं सयलसुरवराणं पि । जं दव्यभावसंथा-रगत्थमुणिणो अरागस्स ॥६१॥ एवं संथारगतो, गओ व्य चिररुढकम्मदुमगहणं । चूरंतो चरणेणं, चरेज्ज निरऽवज्जतरजोगो ॥६२॥ इय मयणभुयगगरुलोवमाए, संवेगरंगसालाए । संविग्गमणोमहुयर-कुसुमियवणराइतुल्लाए ॥६३॥ आराहणाए पडिदार-नवगमइए ममत्तयोच्छेए । तइए दारे भणियं, तइयं संथारपडिदारं m६४॥ तह संथारगयस्स वि, निजामगमंडतरेण न समाही । संपज्जइ खवगस्सा, ता तद्दारं निदंसेमि ॥६५॥ 'चतुर्थः निर्यामकद्वारम्' - | अह सो कयसलेहो, निहयपरीसहकसायसंताणो । छत्तीसगुणोवेए, पच्छित्तविसारए धीरे ॥६६॥ पंचसमिए तिगुत्ते, अणिस्सिए रागदोसमयरहिए । कडजोगी कालन्नू, नाणचरणदंसणसमिद्धे मरणविहिकालकुसले, इंगियपत्थियसहायवेत्तारे । यवहारविहिविहन्नू, अब्भुज्जयमरणसारहिणो अक्खलियाऽऽइगुणऽन्निय-दुवालसंगीसुएक्जलनिहिणो । नियनिज्जामगगुरुणो, मग्गेज्जा निज्जवगमुणिणो ॥६९॥ तो तेसिं सूरीणं, पयमूले पवयणप्पईवाणं । पडिबज्जेज्ज महत्थं, धीरो अब्भुज्जयं मरणं । ॥७०॥ अह तस्स अप्पनिद्दा, संविग्गाऽवज्जभीरुणो धीरा । पास्त्थोसन्नकुसील-ठाणपरिवज्जणुज्जमिणो ॥१॥ खंतिखमा मद्दविया, असढअलोला य लद्धिसंपन्ना । असदग्गाहविमुक्का, दक्खा सुसरा महासत्ता . ॥७२॥ सुतडत्थअपडिबद्धा, निज्जरपेही जिइंदिया दंता। कोऊहलविप्पमुक्का, पियदढधम्मा सउच्छाहा ॥७३॥ आगाढमणा गाढे, सद्दहगनिवेयगा य सट्टाणे । छंदन्न पच्वइया, पच्चक्खाणम्मि य विहन्नू ॥७४॥ कृप्या कप्पे कुसला, समाहिकरणुज्जया सुयरहस्सा । मुणिणो अडयालीसं, गुरुदिन्ना होंति निज्जवगा ॥५॥ |तहाहिउव्वत्त' दार' संथार', कहग वाई य अग्गदारम्मि । भत्त' पाण उच्चार' वियारे, कहग" दिसासु च चउ चउरो॥६॥ उव्यत्तणपरियतण-संचारणपमुहमंडगपरिकम्म । अच्वंतकोमलकरा, करेंति चत्तारि खवगस्स ॥७७॥ संचारिजति उत्थंघिओ हु, अह जइ स नाऽहियासेड़ । संथारगट्ठिओ च्चिय, ता संचारिजए तेहिं ॥८॥ अब्भंतरदारम्मि, चउरो चिट्ठति सम्ममवउत्ता । चत्तारि य संथारं, रइंति पडिलेहणापुव्वं ॥७९॥ | अव्याविद्धमऽविच्या-मिलियमवलियमणहियमडणूणं । अविलंबियमजदुयमऽमि-लियम पुणरुत्तं सुघोसं च॥८०॥ फुडवन्नमऽणुच्च्चमणीय-मडणलीयं तह य साउणुणायं च । सुद्धं सपरिच्छेयं, जह होइ तहा असंदिद्धं ॥८१॥ खवगस्स कहेयव्वा उ, सा कहा जं सुणित्तु सो सम्म । चयइ विसोतियभावं, वच्चइ संवेगनिव्वेयं ॥८२॥ चत्तारि वाझमुणिणो, खलंति परिवाइणो पयंपते । अग्गदुवारे चउरो, तवस्सिणो ठंति उवउत्ता ॥८३॥ 151

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