Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 157
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४६६५-४७०० सुस्थितगवेषणाद्वारम् निद्धमहुरेहिं हिययंगमेहि, पल्हायणिज्जययणेहिं । परहियकरणपरायण-मणेण तेणाऽयि मुणिवइणा ॥६५॥ इह पण्णविज्जमाणो, सम्म पि हु तिव्वगारवाऽऽईहिं । कोई णियए दोसे, सम्म नाडलोयए खवगो ॥६६॥ तो ओवीलेयव्यो, गुरुणा ओवीलएण सो अहया । जह उयरत्थं मंसं, वमयइ सीही सियालीए ॥६ ॥ तह फरुसगिराहिं अणुज्जयस्स, खयगस्स नीहरइ दोसे । आयरिओ तं कडुओ-सहं व पत्थं भवइ तस्स॥६८॥ सुलहा लोए आयट्ठ-चिंतगा परहियम्मि मुक्कधुरा । आयटुं च परहें च, चिंतयंता जए दुलहा ॥६९॥ खवगस्स जड़ न दोसे, उग्गालेइ सुहमे व इयरे वा । ता न नियत्तइ तत्तो, खवगो न गुणे य परिणमइ ॥७०॥ तम्हा गणिणा ओवीलएण, खवगस्स दोससव्वस्सं । उग्गालेयव्वं खलु, तस्स हियं चिंतयंतेण ॥७१॥ सेज्जासंथारोवहि-संभोगाऽऽहारनिक्खमपवेसे । ठाणनिसीयतुयट्टण-विगिंचणुव्वतणाऽऽईसु ॥७२॥ अब्भुज्जयचरियाए, उवयारमणुत्तरं पकुव्यंतो । सव्येण आयरेणं च, सव्यसत्तीए भत्तीए ॥७३॥ अप्पपरिस्सममगणिय, यट्टइ खवगस्स निच्चपडियरणे । जो आयरियो सो खलु, इह होइ पकुव्यओ नाम ॥७४॥ खवगो किलामियंडगो, पडियरणगुणेण निव्युइं लहइ । तम्हा उ निवसियव्यं, खवगेण पकुविणो पासे ॥५॥ संथारभत्तपाणे, अमणुन्ने अह चिरस्स दिन्ने या । पडिचरगपमाएण य, सेहाऽऽइअसंयुडगिराहिं ઉદ્દા सीउन्हछुहातन्हा-किलामिओ तिव्ययेयणतो या । कुविओ भयेज्ज खवगो, मेरं या भेत्तुमिच्छेज्जा ॥७७॥ |निव्यावएण गणिणा, चित्तं खवगस्स निव्ववेयव्यं । अक्खोभेण खमाए, जुत्तेण पणट्ठमार्णण ॥७८॥ | अंगसए य बहविहे, नोअंगसए य बहविहे चेव । रयणकरंडयभूए, अइनिउणो तह तदऽत्थस्स ॥७९॥ |वत्ता कता य दढं, विचित्तसुयधारओ विचित्तकहो । आओवायविहन्नू, मइसंपन्नो महाभागो ૮૦થી निद्धं महुरं हिययंगमं च, आहरणहेउजुत्तं च । कहइ कहं निव्ववओ, समाहिकरणाय नवगस्स ॥८१॥ खुहियं परीसहुम्मीहिं, साहुपोयं भयोहयुभंतं । संजमरयणं निज्जा-मओ व्व निज्जावओ धरइ ॥८२॥ थीबलकमाऽऽयहियं, महुरं कन्नाऽऽहुई जड़ न देइ । सिवसुहकरिं च तो णं, चत्ता आराहणा होइ ॥३॥ ता निज्जामगसूरी, निव्ववओ चेव होइ खवगस्स । आराहणा वि निव्या-वगस्स दारेण चेव धुवं ॥८४॥ तडपत्तस्साऽवि विचित्त-कम्मपरिणइवसेण खवगस्स तण्हाछुहाऽऽइएहिं, अवि होज्ज विसोतियाऽऽइयं ॥८५॥ तं पुण पूयाकामो, कितीकामो अवन्नभीरू य । निज्जूहणाभएणं, लज्जाए गारवेणं या को वि विवेयवियलो, जइ नाडलोएइ सम्ममुवउत्तो । तं जो अवायदंसण-पुरस्सरं सासए एवं ॥८७॥ ए अवियडते. सढो ति संभावणा अकित्ती य । परलोए पुण माइ-तणेण अंतो असारस्स ॥८८॥ इहभवक्यभावविहूण-कट्ठकिरिया वि कुगइहेउ ति । सो च्चिय युच्वइ सूरी, अवायदंसि त्ति नामेण ॥८९॥ एवंविहगुणगणसंगओ य, एसो महुरवयणेहिं । जंपेइ भो महायस!, खवग! विभावेसु सम्ममिम ॥९ ॥ जह नाम कंटगप्पमुह-दव्वसल्लं पि धुवमडणुद्धरियं । जणयइ जणस्स देहे, ण केवलं येयणं चेव ॥९१॥ किंतु 'जरडाहरप्फग-जालागद्दभदुसज्झलुयती य । तदडवररोगसमूहं पि, जणइ ता जाय मरणं पि ॥९२॥ तह चेव भावसल्लं, भिक्खुस्स वि मोहमोहियमइस्स । सम्म खु अणुद्धरियं, धरियं अप्पाणए चेव ॥९३॥ जणयइ ण केवलं इह-भवम्मि अजसाडइ चेव किंतु परं । संजमजीवियहरणा, चारित्ताऽभावमरणं पि ॥९४॥ आसमलणं व अरिपोसणं य, निम्मवणमडसुहकम्माणं । जणयइ भयंडतरेसुं, अइदुल्लहबोहियत्तं च ॥१५॥ तो भट्ठबोहिलाभो, अणंतकालं भवन्नवे भीमे । जम्मणमरणाऽऽवत्ते, अणोरपारम्मि दुहसलिले ॥९६॥ उच्चाऽणुच्चासु विचित्त-भेयजोणीसु दुखदोणीसु । बच्चंतो पच्चंतो, सुतिक्खदुक्खऽग्गिणा चिट्ठे ॥९७॥ तहालभ्रूणमेत्थ जीयो, संसारमहन्नयम्मि सामन्नं । तवसंजमं च अबुहो, नासेइ ससल्लमरणेण ॥९८॥ मरिउ ससल्लमरणं, संसाराउडविमहाकडिल्लम्मि । सुइरं भमंति जीया, अणोरपारम्मि ओइन्ना ॥९९॥ न वि तं सत्थं व विसं व, दुप्पउत्तो व्व कुणइ वेयालो । जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पो व्य पमाइओ कुद्धो ॥४७००॥ 1. ज्वर-दाह-रप्फग = वल्मीको = रोगविशेषः - ज्वाला-गर्दभ = रोगविशेषः - दुःसाध्य-लुयती = रोगविशेषः इत्यादयो रोगाः । 132

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