Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 159
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४७३६-४७७० प्रतिलेखनाद्वार स्वरूपम् - हरिदत्तमुनिदृष्टान्तः अह ते सहरिसमेयं, वयंति तुमए अणुग्गिहीयम्ह । एवं चिय काहामो, सइ लाभे सव्यजत्तेण ॥३६॥ आगंतुगेण एवं, वत्थव्वपरिक्खणा उ कायव्या । आगंतुगं पि यत्थव्व-साहुणो इय परिक्वन्ति कलमोयणाऽऽइउत्तम-आहारमऽमग्गिया वि उवणिंति । आगंतुगस्स जड़ सो, सविम्हयं एवमुल्लवड़ ॥३८॥ अहह चिरधरणिभमणे वि, एरिसा पवरगंधबंधुरया । सरसत्तणं पि नेवो-यणस्स दिटुं कहिं पि मए ॥३९॥ न य वंजणसामग्गी वि, दीसइ अन्नत्थ एरिससरुया । भुंजिस्सामि पकामं पि, ता अहं भोयणमिमं ति ॥४०॥ ता सो णिसेहियब्यो, न उत्तिमट्ठप्पसाहणायाडलं । अजिइंदिओ त्ति पुणरवि, जहाऽऽगयं पेसियव्यो य ॥४१॥ जो पुण तारिसमसणं, दटुं जंपेज्ज उत्तिमट्ठऽत्थी । हंहो महाअणुभावा!, किमडणेण ममोवणीएण ॥४२॥ |एवंविहस्स पवराजसणस्स, को भुंजिउ ममं कालो । तो णं पडिच्छियव्यो, स महासत्तो समुचिओ ति ॥४३॥ एवं कओवयारा, परोप्परं ठाणगमणसज्झाए । आवस्सयभिक्खग्गह-वियारमाऽऽइसु परिक्खंति ॥४४॥ अह जड़या सो अब्भु-च्छहेज्ज आराहणं पकाउं जे । वत्थव्वसूरिणा वि हु, परिक्खियव्यो तया एवं ॥४५॥ |सुंदर! तुमए अप्पा, संलिहिओ? जइ वएज्ज सो एवं । किं चम्मऽट्ठियमेतं, भयवं! नो पेच्छसि ममंगं ॥४६॥ असुणंतो व्य पुणो वि हु, ता पुच्छेज्जा पुणो वि स सरोसं । अइनिउणो सि न सिटे वि, नेव दिढे वि पत्तियसि॥४७॥ नियग-मंडगलिं भंजिऊण दंसेज्जा । पेच्छस निउणं भयवं!. जह एत्थ सथेवमेतं पि ॥४८॥ मंसं व सोणियं वा, मज्जं या अस्थि एवमवि भंते! । किं संलिहामि? तो णं, स सूरिणा एव भणियव्यो॥४९॥ 'न हु ते दव्यसंलेहं, पुच्छे पासामि ते किसं । कीस ते अंगुली भग्गा, भाये संलिह मा तुर' ॥५०॥ 'इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु । ण चेयं ते पसंसामि, किसं साहू! सरीरगं' ॥५१॥ | सिलोयजुयलं चेयं, युत्तं वत्थव्वसूरिणा । आराहणानिमित्तेणं, आगयप्पडिबोहणे । ॥५२॥ |एवं परोप्परं सड़, सुक्यपरिक्वाण उभयपक्वाण । भत्तपरिन्नाकाले, थेवं पि ण होज्ज असमाही। ॥५३॥ अइरभसक्याणं पुण, पाएण पओयणाण पज्जते । धम्मऽत्थसंगयाण वि, न विवागो निव्वुई जणइ ॥५४॥ इय धम्मतावसाऽऽसम-समाए संवेगरंगसालाए । मरणरणजयपडागो-बलंभनिविग्घहेऊए । ॥५५॥ आराहणाए पडिदार-दसगमइयम्मि बीयदारम्मि । गणसंकमे परिच्छ ति, सत्तमं दारमुवइटुं ॥५६॥ 'प्रतिलेखना द्वारम् । विहिओभयपक्वपरिक्खणे वि, नाऽऽराहणउत्थिणो कज्जं । जीए विणा निविग्धं, संपज्जड़ भाविका तं पडिलेहं एत्तो, कित्तेमि सा पुणो भयइ एवं । किर निज्जामगसूरी, सुगुरुपरंपरयपत्तेण ॥५८॥ खवगस्सुवसंपन्नस्स, तस्स आराहणाए वक्नेयं । दिव्येण निमित्तेणं, पडिलेहइ अप्पमत्तमणो ॥५९॥ रज्जं खेतं अहिवइ-गणमडप्पाणं च पडिलिहिताणं । तमविग्घम्मि पडिच्छइ, अप्पडिलेहाए बहुदोसा ॥६०॥ परओ या तं नाउं, पारगमिच्छंति इहरहा नेव । सिवख्नेमसुभिक्नेसुं, निव्याघाएण पडियत्ती ॥६१॥ इहरा रायाऽऽईणं, सरुवपडिलेहणाए विरहम्मि । आराहणाए विग्यो वि, होज्ज हरिदत्तमुणिणो व्य ॥२॥ तहाहि 'हरिदत्तमुनिदृष्टान्त' संखपुरे नयरम्मि, पसिद्धिपत्तो नराऽहियो आसि । सिवभद्दो नामेणं, महाबलो विजियसत्तुकुलो ॥६३॥ उवरोहिओ य वेय-प्पमोक्खनीसेससत्थकुसलमई । मतिसागराऽभिहाणो, अहेसि से सम्मओ बाढं ૬૪ तेण य राया अणवरय-मेव निबिग्घरज्जसुहहेउं । दुग्गड़निबंधणेसु वि, पयट्टियो 'जन्नकज्जेसु ॥६५॥ अह एगम्मि अवसरे, समोसढो नयरबाहिरुज्जाणे । बहुसमणसंघसहिओ, सूरी गुणसेहरो णाम ॥६६॥ तव्वंदणवडियाए, सबालवुड्ढाऽऽउलो नगरलोगो । वाहणजाणाऽऽरूढो, महाविभूईए तत्थ गओ દળ राया वि तम्मि समए, तेणेव पुरोहिएण सह तुरए । आवाहिउँ पयट्टो, पुरस्स बहियाविभागम्मि ૬૮ના अह तं नयरीलोयं, इंतं विणियत्तमाणमऽवि दटुं । कोऊहलेण रन्ना, पुढे किं अज्ज को यि महो? ॥६९॥ जेणेस जणो एवं, पयराडलंकारभूसियसरीरो! । निययविहवाऽणुसारेण, सव्वओ वियरइ जहिच्छं ॥७०॥ 1. जन्नकज्जेसु = यज्ञकार्येषु । 134

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