Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 163
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४८६७-४६०० गृतीयममत्वव्युच्छेदद्वारम् - आलोचनाविधानद्वारम् "तृतीयममत्वव्युच्छेदद्वारम्" 'मंगलाचरणम्' - दव्ये खेत्ते काले, भावम्मि य सय्वहा धुयममत्तो । भययं भवंडतयारी, निरंजणो जयइ वीरजिणो ॥६॥ 'अन्तरद्वारनामानि' - - परिकम्मियऽप्पणो यि हु, क्यपरगणसंकमस्स वि य जम्हा । अव्वुच्छिन्नममत्तस्स, नत्थि आराहणा तम्हा ॥६८॥ भणिउं गणसंकमणं, इन्हेिं वोच्छं ममत्तयोच्छेयं । तम्मि य पडिदाराई, कमेण एयाई नव होन्ति ॥६९॥ आलोयणाविहाणं, सेज्जा' संथारओ य निज्जवचा' । दंसण हाणी पच्च-खाणं तह खाम अब्भुवगओ वि खमगो, गुरुणा नाऽऽलोयणं विणा सुद्धिं । पावइ जं ताऽऽलोयण-विहाणदारं परुवेमि ॥१॥ _ 'आलोचनाविधानद्वारम्' किर भणइ गुरू खवगं, विहिणा महुरडक्खरं गणसमक्खं । हहो देवाऽणुप्पिय!, सम्मं संलिहियकाओ सि ॥७२॥ सम्मं पवन्नसामन्न-वन्नियाऽसेसकिच्चनिरओ सि । सम्मं सीलगुणाऽडगर-गुरुजणपयसेवणपरो सि ॥७३॥ सम्ममऽपुन्नदुलंभं, परमं पयविं तुमं पवन्नो सि । ता एत्तो सविसेसं, मुक्काऽहंकारममकारो ॥७४॥ अइदुज्जयं पि इंदिय-कसायगारवपरीसहाजणीयं । निज्जिणिऊणं सम्म, उपसंतविसोत्तियातायो ॥७५॥ आलोएस विहीए, सविहिय! हियमऽप्पणो समीहंतो । दच्चरियमणयमेतं पि. इह पणाऽडलोयणविहाणे ॥७६॥ आलोयण दायव्या, केवइकालउ' कस्स' केणं वा । के य अंदाणे दोसा, के य गुणा होन्ति दाणम्मि ॥७७॥ कह दायव्या य तहा, आलोएयव्ययं च किं गुरुणो । कह व दवावेयव्वा', पच्छित फलं च दाराइं ॥७८॥ जड़ वि हु पइदिणमऽपमत्त-माणसो जयइ सव्वकिच्चेसु । कंटकवेहं व पहे, तहा वि किंपि हु अईयारं ॥७९॥ आवज्जड़ साऽवज्जविवज्जगो वि, कम्मोदयस्स दोसेण । कत्थइ किच्चविसेसे, तस्स य सुद्धिं समीहन्तो ॥८०॥ | पक्खियचउमासाऽऽइसु, नियमेणाऽऽलोयणं मुणी देज्जा । गिण्हेज्जऽभिग्गहे पुण, पुव्वग्गहिए नियेइत्ता ॥८१॥ | एमेव उत्तिमढे, संवेगपरेण सीयलेणाऽपि । आलोयणा हु देया, जाणियजिणवयणसारेण ॥२॥ इय जेत्तियकालाओ, देया आलोयण त्ति निद्दिटुं । एत्तो जारिसयस्सा, देया सा तं पवक्खामि ॥८३॥ पयडिज्जइ जह रोगो, कुसलस्स चिगिच्छगस्स लोगम्मि । लोगुत्तरे वि तह कुसल-सूरिणो भावरोगो वि ॥८४॥ कुसलो य सो च्चिय इहं, दोसस्स नियाणमाऽऽइ जो मुणइ । अच्वंतमऽप्पमाई, सव्वत्थ समो य सो दुविहो॥८५॥ आगमओ सुयओ वा, आगमओ छविहो विणिद्दिट्ठो । केवल मणो-हिर-३ चोद्दस-दस नव-पुची य नायव्यो॥८६॥ कप्पपकप्पो य सुए, आणाइतो य धारणाए य । एसो वि हु कारणओ, कुसल इव जिणेहडणुनाओ ॥७॥ जह किर 'विभंगिणो रोग-कारणं ओसहं च तस्समणं । नाउं विविहाऽऽमइणं पि, दिन्ति विविहोसहसमूहूं ॥८॥ पावेंति तदुवओगेण, रोगिणो तक्खणेण रोगवयं । निब्बुइमऽणहं च सया, एसेवुवमाओ इहई पि ॥८९॥ |विभंगिणो इव जिणा, रोगी साहू य रोग अवराहा । सोही य ओसहाई, सुद्धं चरणं तु आरोग्गं ॥१०॥ जह य विभंगिकएहिं, रोगं नाऊण वेज्जसत्थेहिं । भिसजा करिति किरियं, तह पुव्वधरा वि सोहिंति ९१॥ कप्पपकप्पधरो चिय, आयारखमाऽऽइगुणगणोवेओ । सोहेइ भव्वसत्ते, सोहीए जिणोवइट्ठाए ॥९२॥ जंघाबलहाणीए, देसंऽतरसंठियाण दोण्हं पि । अग्गीयगूढवियडणा, सोही आणाए एस विही ॥९३॥ असई कयं विसोहिं, अवधारियसयलतत्ततम्मतो । तह चेव ववहरंतो, धणाजुत्तो मुणेयव्यो ॥९४॥ निज्जुत्तीसुत्तऽत्थे, पीढधरो विय किलेत्थ जोगो ति । कालं पडुच्च नेओ, जीयधरो जो वि गीयत्थो ॥९५॥ सेसा न होंति जोगा, जह कूडचिगिच्छगा उ अवियड्ढा । रोगवियुढिं मरणं च, रोगिमणुयाण उवणेति ॥९६॥ पाति य ते गरिहं, लोए दंडं च निवसयासाओ । लोउत्तरे वि एवं, जोएज्जा सव्यमेयं ति ९७॥ कूडाऽऽलोइयसोही-दाणं विवरीयदोसपरिवुड्ढी । ततो चरणाऽभायो, मरणं पुण एत्थ नायव्यं ॥९८॥ गरिहा भवंडतरेसु चि, जिणवयणावराहगाण गरिहेसु । ठाणेसु समुप्पत्ती, दंडो पुण दीहसंसारो आलोयणाऽरिहेसो, उस्सग्गऽववायओ विणिद्दिट्टो । सा जारिसेण देया, तारिसयं संपयं योच्छं ॥४९००॥ 1. विभङ्गिनः = वैद्याः (अनुमानात्)। 138 ९९॥

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