Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group
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संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३६२८-३६६४
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॥३३॥
॥३६॥
एडकाक्षनगरोत्पत्तिवर्णनम् | उवलद्धसुद्धगुणमणि - खणिगणिपयपयडपसरियपयावा । भुवणजणपणयचरणा, चिरकालं विहरिया वसुहं ॥२८॥ अह सिस्सपसिस्साण वि, विहिपुव्युवइट्ठसयलसुत्तऽत्थो । निययगणमऽप्पिउणं, महागिरी सिरिसुहत्थिस्स ॥२९॥ बुच्छिन्नं जिणकप्पं, मुणिऊण वि तदऽणुरुवपरिक्रम्मं । कुणमाणो सो विहरिउ - माऽऽरुद्धो गच्छनिस्साए ॥३०॥ विहरतो य महप्पा, पाडलिपुत्तम्मि वरपुरम्मि गतो । भिक्खऽट्ठा य पविट्ठो, समुचियसमयम्मि उवउत्तो ॥३१॥ अह तत्थेव पुरम्मि, वत्थव्येणं स सयणबोहऽत्थं । अज्जसुहत्थी वसुभूइ - सेट्ठिणा नियगिहे नीओ पारद्धा धम्मकहा, तेणाऽवि य तव्विबोहणनिमित्तं । एत्थंतरम्मि पत्तो, महागिरी तत्थ भिक्खट्टा दट्टु सुहत्थिणा भाव - सारमब्भुट्ठिओ य स महप्पा । तो बिम्हइयमणेणं, भणियं वसुभूणा एवं ॥३४॥ भयवं! किं तुम्हाण वि, अन्ने विज्जंति सूरिणो गरुया । जं एवमिमस्स कया, अब्भुट्टाणाऽऽइपडिवती ॥३५॥ भणियं सुहत्थिणा भद्द ! एस भयवं सुदुक्कराऽऽरंभे । अईए वि हु जिणकप्पे, तप्परिकम्मं इय करेड़ | उवसग्गयग्गसंसग्ग-निच्चलो उज्झियऽन्नभोई य | निच्चोलंबियहत्थो, धम्मज्झाणेक्कपडिबद्धो ससरीरे वि हु मुच्छा-विवज्जियो नियगणे वि अममत्तो । सुन्नहरसुसाणाऽऽइसु, विचित्तठाणोवठाई य | इय एवमाऽऽइजिणकप्प - विसयपरिकम्मकारिणो तस्स । गुणसंथवं करिता, सूरी धम्मे य ठविऊणं वसुभूइसयणवग्गं, विणिग्गओ तग्गिहाओ अह सेट्ठी । भणड़ नियपरियणं जड़, कहंपि एवंविहो साहू आगच्छेज्जा भिक्खऽट्ठ- मेत्थ उज्झतगाणि ता तुम्मे । काऊणाऽसणपाणाऽऽई, तस्स देज्जह पयत्तेणं एवं दिनं हि बहु- फलं भवे इय परुविए संते । पत्तो महागिरी अन्न-वासरे भिक्खणट्टाए | वसुभूइदिन्नसिक्खाऽणु-रूवओ परियणं च दट्ठूणं । दाणऽट्ठमुट्ठियमुज्झि - यन्नपाणप्पयारेण | दव्वाऽऽइसु उवउत्तो, महागिरी मंदरो व्य गुरुसत्तो । जाणड़ कवडविरयणं, अगहियभिक्खो नियत्तइ य ॥४४॥ | कहड़ य सुहत्थिणोऽणेस - णा क्या सो भणेड़ नणु केण । तुमए मइ इंतम्मि, अब्भुट्ठाणं कुणंतेण ' ॥४५॥ अह ते दो वि समं चिय, वइदिसनयरिं गया विहारेण । जियपडिमं वंदित्ता, तत्थऽज्जमहागिरिमुणिंदो ॥ ४६ ॥ तत्तो विणिक्खमित्ता, गयग्गपयवंदणट्टया चलितो । नयरम्मि एलगच्छे, तमेलगच्छं च जह जायं
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॥४७॥
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॥३९॥
“एडकाक्षनगरोत्पत्तिवर्णनम् "
॥५२॥
॥५४॥ ॥५५॥
तह भन्नड़ किर पुव्यं, नामेण इमं दसन्नपुरमाऽऽसि । तत्थ य सुसाविया मिच्छ-दिट्टिणो संतिया गिहिणी ॥४८॥ जिणधम्मनिच्चलमणा, पच्चक्खाणं पओससमयम्मि । कुणमाणी हीलाए, भणिया सा भत्तुणा एवं ॥४९॥ रयणीए मुद्धि ! किं कोई, भोयणं कुणड़ जेण संवरणं । एवं पइदियहं पि हु, निरडत्थयं तं समायरसि ॥५०॥ | जड़ पुण अभुज्जमाणऽत्थ- पच्चक्खाणे वि होज्ज कोई गुणो । ता कहसु जेण अहमऽवि, पच्चक्खाणं करेमि त्ति ॥५१॥ तीए पयंपियं अत्थि, चेव विनिवित्तिसंभवो सुगुणो । नवरं पच्चक्खाणे, घेत्तुं भग्गे महादोसो आ मुद्धि ! निसिम्मि तए, दिट्ठो हं किं कयाइ जेमंतो । इय हीलाए जंपिय, पच्चक्खाणं कयं तेण ॥५३॥ अह तद्देसगयाए, विचिंतियं देवयाए एक्काए । हीलाकरस्स एयस्स, अज्ज फेडेमि दुव्विणयं | तत्तो भगिणीरूवेण, दिव्यमोयग पहेणयं घेत्तुं । देवी समागया से, पणामियं तीए तं भोज्जं सो भुंजिउमाऽऽरद्धो, पडिसिद्धो साविगाए तो भणड़ । हो ! होउ कयं तुह मुद्धि ! कूडनियमेहिं मह इन्हिं ॥ ५६ ॥ आ पाव! जिणमयं पि हु, उवहससि विणट्ठसुहसमायार ! । इड़ जंपिरीए दढजाय - कोववसपाडलऽच्छीए ॥५७॥ तह देवयाए पहओ, मुहम्मि सो स्यणिभोयणाऽऽसत्तो । जह अच्छिगोलगा दो वि, निवडिया तस्स भूवट्टे ॥ ५८ ॥ अहह ! मह अवजसो एस, होहिड़ इय वियक्कजायभया । काउस्सग्गेण ठिया, जणपुरओ साविगा ताहे ॥५९॥ अह अड्ढरत्तसमए, समागया देवया इमं भणइ । किं सुमरियम्हि तीए, पयंपियं देवि ! अवणेसु ॥६०॥ अवजसमिमं ति तक्खण-हणिज्जमाणेलगस्स अच्छीणि । अह घेत्तुं देवीए तस्सऽच्छिजुयम्मि ठवियाणि ॥ ६१ ॥ जाए पभायसमए, सविम्हयं सयणनयरलोएण । भणियं चोज्जमिमं भो!, जाओ तं एलगऽच्छो ति एवं च एलगऽच्छो त्ति, सो पसिद्धिं गतो हु सव्वत्थ । तस्संबंधेण पुरं पि, एलगऽच्छं तओ जायं अह पुव्वऽभिहाणेणं, दसन्नकूडो त्ति विस्सुओ वि जए । स गयऽग्गपओ सेलो, जह जाओ तह परिकहेमि ॥ ६४ ॥
॥६२॥ ॥६३॥
1. पहेणयं = भोजनम् वा प्राभृतम् ।
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