Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group
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संवेगरंगशाला श्लोक नं. ४५२४-४५५६
संसर्गजन्यगुणदोषणवर्णनम् ___ "संसर्गजन्यगुणदोषवर्णनम्" - किं च अहंतगुणकए, हुंतगुणाणं तु बुढिकरणाय । सुयणेहिं चेव सद्धिं, सया वि संगं रेज्जाह ॥२४॥ हतगणनासणभया, अहुंतगुणदूरतरगमभएणं । दोसल्लियणभएण य
॥२५॥ भाविज्जड़ जइ दव्वेण, नवघडो सुरहिणेयरेणं वा । ता गुणदोसेहिं नरो, भाविज्जड़ किं न परसंगा ॥२६॥ दुज्जणसंसग्गीए, पायं सुयणो वि नियगुणं चयइ । संसग्गीए अग्गिस्स, जह जलं सीयलत्तगुणं ॥२७॥ दुज्जणसंसग्गीए, संकिज्जड़ सज्जणो वि दोसेहिं । चंडालगिहे दुद्धं, पिबंतओ बंभणो व्व जणे ॥२८॥ वेरग्गवं पि दुज्जण-जणसंसग्गीए भाविओ पायं । न रमइ सज्जणमझे, रमइ य दुज्जणजणस्संडतो ॥२९॥ कुसुममडगंधं पि जहा, देवयसेस ति कीरए सीसे । तह सुयणमज्झवासी, पूइज्जइ दुज्जणो वि जणो ॥३०॥ अन्नं पि तहा वत्थु, जं जं चरणगुणनासणं कुणइ । तं तं परिहरह तओ, होहिह दढसंजमा तुभे ॥३१॥ निच्चं पासत्थाऽऽईहिं, संथयं पि य पयत्तओ चयह । पुरिसो संसग्गिवसेण, 'तम्मओ होइ अचिरेण ॥३२॥ तहाहिसंविग्गस्स वि तस्संगईए, पीई ततो वि वीसंभो । सइ वीसंभे य रई, होइ रईए य तम्मयया ॥३३॥ तत्तो लज्जाविगमो, पवत्तणं निव्विसंकमऽसुहडत्थे । पियधम्मो वि हु एवं, परिभस्सइ संजमाओ लहु ॥३४॥ संविग्गाण उ मज्झे, अप्पियधम्मो वि कायरो वि नरो । उज्जमइ चरणकरणे, भावण-भय-माण-लज्जाहिं ॥३५॥ संविग्गो पुण तस्संगमेण, सविसेसगुणजुओ नियमा । जायइ जह कप्यूरो, सुरभितरो मिगमए मिलितो ॥३६॥ पासत्थसयसहस्साओ, हंदि एक्को वि वरमिह सुसीलो । जं संसियाण दंसण-नाणचरित्ताणि वड्ढंति ॥३७॥ वरमिह कुसीलक्यपूयणाओ, संजयकओऽवमाणो वि । पढमाउ सीलविगमो, संपज्जड़ न उण इयराओ ॥३८॥
ह. कसीलसंसग्गिमेहबद्दलए । वंतरविसं व कप्पड, पणो वि मणिणो पमायविसं ॥३९॥ तम्हा पियदढधम्महिं, वज्जभीरुहिं कुणह संसग्गिं । उज्जमइ मंदधम्मो वि, तप्पभावा जओ भणियं ॥४०॥ "नवधम्मस्स पाएणं, धम्मे न रमइ मई । वहए सो वि संजुत्तो, गोरिवाऽविधुरं धुरं"
॥४१॥ संवासं सीलगुणड्ढएहिं, जो संकहं वियड्ढेहिं । पीइं अलुद्धबुद्धीहिं, कुणइ सो कुणइ अप्पहियं ॥४२॥ आसयवसेण एवं, पुरिसा दोसं गुणं च पावेति । तम्हा पसत्थगुणमेय, आसयं अल्लिएज्जाह ॥४३॥ कन्नकडुयं पि पत्थं, परोप्परं वागरेज्ज अबुट्टा । कडुओसहं व होही, परिणामे सुंदरं तं खु
૪૪ सगणे व परगणे वा, परपरिवायं च मा करेज्जाह । अच्चाऽऽसायणविरया, होह सया पावभीरू य ॥४५॥ अन्नं च सव्वहा तह, परिकामह अप्पयं पयत्तेण । जह तुम्ह गुणपसूया, किती सव्वत्थ वित्थरइ ॥४६॥ | एए निम्मलसीला, बहुसुया नयपरा अणुयतावी । करणगुणसुट्ठिय ति य, धन्नाणं घोसणा भमइ ॥४७॥ | एसो य मए तुम्हं, मग्गमडजाणाण मग्गदेसरओ । चक्खू व अचक्खूणं, सुवाहिविहुराण वेज्जो व्य ॥४८॥ असहायाण सहाओ, भवगत्तगयाण हत्थदाया य । दिन्नो गुरू गुणगुरू, अहं च परिमोक्कलो इन्हेिं ॥४९॥ एयस्स य पयमूलं, मोतूण क्याइ कत्थई तुम्ह । गंतुं जुत्तं न वरं, वयणेण इमस्स जड़ कहवि ॥५०॥ एयाउडएसगएहि वि, कहिंचि पुन्नागरो गुरू एस । भावेण न मोत्तव्यो, आणानिद्देसनिरएहिं ॥५१॥ सामी भडेहिं अंधेहिं, कड्ढओ पंथिएहिं सत्थाहो । जह न विमुच्चइ एसो, तह तुम्भेहि वि न मोत्तव्यो ॥५२॥ एयम्मि सारणावार-णाऽऽइदाणे वि नेव कवियव्यं । को हि सकन्नो कोवं, करेज्ज हियकारिणि जणम्मि॥५३॥ कडुयं पि कहवि भणियं, सप्पणयं तमडमयं व मन्नंता । मा कुलवह व्य तुम्हे, विणयं एयम्मि छड्डिहिह ॥५४॥ गुरुछंदाउडणंदरुई, गुरुदिट्ठिनिवायनियमियपयारा । गुरुरुइयविणयवेसा, कुलवहुसरिसा अओ सीसा ॥५५॥ |भाविगुणाऽवेक्वाए, कयगेणियरेण या वि कोवेणं । आबद्धभीमभिउडी-भीसणयरभालबद्धो वि ॥५६॥ होऊण कह वि तुम्हे, जइ वि इमो कज्जकारणविहन्न । निब्भच्छड़ निच्छुभइ य, तह वि इमो चेव सिंगारो ॥५७॥ अम्हं ति मन्नमाणा, सुनिउणतरविणयजोगओ तुम्हे । अमुमेव पसाएज्जह, एवं हिययम्मि भाता ૧૮ सब्भावगब्भबहुविह-तहाविहप्पहुपसायणप्पवणे । पुणरुत्तमडवंझफले, विविहोवाए नियमणम्मि
॥५९॥ 1. तम्मओ = तन्मयः = तद्रूपः । 2. अवद्यभीरुभिः ।
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