Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group

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Page 108
________________ संवेगरंगशाला श्लोक नं. २६१७-२६५३ चतुर्थः पुत्रप्रतिबोधकद्वारम्. जं तस्स साउणुबंधो, पधावइ पढममेव समकालं । तब्बिसयसव्वदब्ब-क्खेत्ताऽऽइसु चित्तपडिबंधो ॥१७॥ तम्हा नियदव्याओ, किंचि विहवाडणुसारओ चेय । परिचिन्तिऊण साहा-रणस्स पारंभगा जे उ ॥१८॥ जे य अणिंदियविहिणा, पइदिणमेयंनयंति परिवुड्ढिं । परिवालयंति जे वि य, अचलियचित्ता महासत्ता ॥१९॥ जे वि य पुव्युत्तकमेण, चेव जुंजंति त जहाजोगं । तित्थयरनामगोतं, कम्मं बंधति ते धीरा ॥२०॥ पइदिणतविसयपवड्ढ-माणमाणसविसेसपरिओसा । नारयतिरयगइदुगं, ते नूण नरा निरंभंति ॥२१॥ संपति क्या वि य, न बंधगा अयसनीयगोताणं । जायंति य सविसेसं, निम्मलसम्मत्तरयणधरा ॥२२॥ थी पुरिसो वा पच्छा वि, तत्थ रित्थं नियं पयच्छड़ जो । सो कल्लाणपरंपर-मऽवियप्पं पायए पमं ॥२३॥ इह लोगे च्चिय जायइ, नियजसपब्भारभरियभुवणयलो । पुण्णाऽणुबंधिसंपय-सामी भोई सुपरिवारो ॥२४॥ जंमंतरम्मि उत्तम-देवो तदणंतरं सुकुलउत्तो । पत्तो चरित्तसंपत्ति-भायणं तयणु सिद्धो वि ॥२५॥ गएणं, जड़ ता न ह तब्भवेण से मोक्खो । ता तइयसत्तमेसं, अट्ठमयं पुण न लंघेड़ ॥२६॥ जे पुण तम्मूढमणा, यामोहेणं कहिं पि केणाऽपि । नियपक्खयायवसगा, एक्कम्मि चेय जिणभवणे ॥२७॥ जिणबिंबे वा मुणिसाव-गाउडहए या वि एक्कहिं चेव । न य सव्वजिणगिहाऽऽईसु, सम्म पुचोदितविहीए॥२८॥ वेच्वंति पंचगा पव-यणस्स ते कुगतिगामिणो जेण । तारिसपवित्तिओ ते, सासणयोच्छेयमिच्छंति ॥२९॥ भणियमियकालविगमण-पडिदारं सप्पसंगमऽपि तइयं । युच्वइ चउत्थमेत्तो, पुत्तपडिबोहपडिदारं ॥३०॥ “पुत्रप्रतिबोधकद्वारं" - अह पुव्वपवंचियनिच्च-किच्वनिच्वलनिलीणनियचित्तो । केवड़ए वि हु काले, योलीणे वाहिविरहेण ॥३१॥ पुत्तपयपरिणइं पेच्छि-ऊण सविसेसवड्ढिउच्छाहो । आराहणाऽभिलासी, सुसावगो जायवेरग्गो ॥३२॥ निबिडपडिबंधबंधुर-मडणद्धरं पुत्तगं समाहूय । भववेरग्गकरीए, गिराए एवं पयंपेज्जा ॥३३॥ वच्छ! नियच्छसु पयईए, दारुणतं भवस्स एयस्स । जम्हा इह दुल्लंभ, पढमं पि जियाण मणुयत्तं ॥३४॥ मरणस्स संचयारो, जम्मो अच्चंतकट्ठसंट्ठपा । संज्झब्भरायचवला य, संपया पयइओ चेव ॥३५॥ भीमा रोगभुयंगा, विबलतं निंति थेवकाले वि । वडविडविबीयतुच्छो, साडयाओ वि य सुहाउणुभयो ॥३६॥ सुरगिरिगरुयाई आव-डंति दुक्खाई परमतिक्खाई । अणुपयमऽणुलग्गाओ, वियरंति आवयाओ वि ॥३७॥ निच्छियभाविवियोगा, सव्ये वि हु लट्ठइट्ठसंजोगा । उप्पज्जतमणोरह-पच्चूहा एइ मच्चू वि ॥३८॥ न य लक्खिज्जइ एत्तो, मरिऊणं पेच्च कत्थ गंतव्यं । एवंविहा य दुलहा, पुणो वि सद्धम्मसामग्गी ॥३९॥ ता वच्छ! न जावडज्ज वि, कवलज्जिइ मह जरापिसाईए । तणुपंजरमऽबलतं, वच्चंति न इंदियाई पि ॥४०॥ उट्ठाणबलपरक्कम-वियलत्तणमडवि न जाव आवडइ । ताव तुहाउणुन्नाए, परलोयहियं पवज्जामि ॥४१॥ अह कन्नकुहरकडुयं, विओगसंसूयगं गिरं सोच्चा । गिरिगरुयमोग्गरेणा-हओ व्य पाहाणपडिओ व्य. ॥४२॥ मुच्छानिमीलियडच्छो, ताविच्छसरिच्छआणणच्छाओ । उप्पन्नमन्नुखलिरडक्ख-राए वाणीए नियजणगं ॥४३॥ सोगविगलंतनेतो, पुत्तो जंपेज्ज ताय! हा कीस । एवमऽकंडुड्डमर-प्पायं ययणं समुल्लवसि ॥४४॥ अज्ज वि न पत्थुयउत्थस्स, को वि संपज्जईह पत्थायो । अज्झवसायाओ इमाओ, ताय! ता संपयं विरम॥४५॥ तो जणगो से जंपेज्ज, पुत्त! अच्वंतविणयपडिबंधो । संजायपलियसंगं, ममोत्तिमंगं न किं नियसि ॥४६॥ संचलियसंचयऽटुिं, न कायजलुि पि किं पलोएसि । ईसिपयासे वि न किं, विचलंतिं दंतपंतिं पि ॥४७॥ लोयणबलियं नो नयण-जुवलियं किं न पेहसे वच्छ! । बलिसंतयं सरीरत्त-यं पि निन्नट्ठला ૪૮ पवरपरक्कमनिव्वत्त-णिज्जकज्जोवजायसंदेहं । देहं बिंबं व रविस्स, पच्छिमाउडसाविलंबिस्स। ॥४९॥ पभट्ठलट्ठसोहं, न वा विभावेसि किं तुमं वच्छ! । जेणाकालं जंपसि, पत्थावे पत्थुयऽत्थस्स ॥५०॥ लक्ष्ण हि मणुयत्तं, जिणधम्मजुयं गिहीणमिणमुचियं । जं अब्भुज्जयजीविय-मते अब्भुज्जयं मरणं । किञ्चविहियं निंदियदमणं, काऊण मणोनिरंभणं जेण । लद्धं पि माणुसतं, अहह! गयं निप्फलं तस्स ॥५२॥ ता पुत्त! समणुमन्नसु, सुपुरिसचरियाऽणुरुवमऽहमिन्हेिं । मग्गं समणुसरामि, अह पुत्तो जंपए ताय! ॥५३॥ 83

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