Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Lehar Kundan Group
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संवेगरंगशाला श्लोक नं. ३०६१-३०६८
सप्तमम् आयुः परिज्ञानद्वारे एकादशप्रतिद्वारवर्णनम् आसन्नेयरमच्च, कालविभागो य जइ वि सव्यन्न । न विणा नज्जइ सम्म, विसेसओ दूसमासमए ॥१॥ तस्स परिन्नाणडट्ठा, केइ उवाए तहा वि परिथूले । अहभुवइसामि तव्विसय-सत्थसामत्थजोगेणं ॥२॥
ह जलहराउ बद्री. जह दीवाउ तमोगयपयत्था । जह धुमाओ अग्गी, जह पुप्फाओ फलप्पाओ ॥६३॥ बीयाओ अंकुरो जह, तह एयद्दारसमुदयाओ वि । लक्खिज्जइ पाएणं, कुसलेहिं मरणकालो वि ૬૪
"मृत्युकालपरिज्ञानद्वारे एकादशप्रतिद्वारवर्णनम्" - देवय-सउण-उवस्सुइ,-छाया-नाडी-निमित्त-जोइसओ । सुविणग-अरिट्ठ-जंत-प्पओग-विज्जाहिं कालगमो [दारगाह]॥६५॥ अंगुट्ठखग्गदप्पण-कुड्डाइसु पवरविज्जसत्तीए । अवयारिया विहीए, तहाविहा देवया का वि साहेज्ज पुच्छियहत्थं, नवरं विहिणा दढं सुइब्भूओ। निच्चलमणो सरेज्जा, विजं तद्देवयाडहवणिं ॥६५॥ विज्जा एत्थं पुण 'ॐ नरवीरे ठ ठ' इम ति नायव्वा । रविससिगहणे एसा, अठुत्तरदससहस्साण ॥६८॥ जायेण साहियव्या, अह संपतम्मि कज्जकालम्मि । अंगुट्ठाइसु लीयइ, अट्ठोत्तरसहसजावेण
॥६९॥ तत्तो कुमारियाओ, वंछियमउत्थं नियंति निभंतं । सम्मत्तनिच्चलाणं, णवरं वंछियकरी एसा । ॥७०॥ अहव सयं चिय सक्खा, अक्खित्तमणा गुणेहिं खवगस्स । तं नत्थि जं न साहइ केत्तियमिह मरणकालं तु [देवयादारं]॥७१॥ सज्जो व गिलाणो या, सयं परेणं य आउनाणकए । सउणं निरूवएज्जा, अह पढम तत्थ सज्जकए ॥७२॥ क्यदेवगुरुपणामो पसत्थदियहमि परमसइओ । गेहे बहि व सम्मं, परिभावेज्जा सउणभावं વાછરા अहिमूसयकिमिकीडा-कीडियगिहगोहविच्छियाऽऽईणि । 'रप्फुद्देहियफोडा-मंकुणजूयाइ अरित्तं
॥७४॥ लुयमक्कडियाजालय-भमरीगिहधन्नकीडया लोणं । लेवप्फोडविवन्नं, कारणरहियं भवे अहियं
॥७५॥ उव्येयकलहझंझा, धणनासो याहिमरणवसणाई । उच्चाडणं विएसो, सुण्णघरं होइ अचिरेण
॥७६॥ अह कहवि कया वि कहिं पि, यायसो सुहपसुत्तऽवत्थस्स । चंचूए चिहुरचयं, चुंटइ ता मरणमाऽऽसन्नं ॥७७॥ वाहणसत्थोवाणह-छत्तयछायंगकुट्टणमडसंको । जस्स किर कुणड़ काओ, सो वि लहुं जममुहगमिस्सो ॥८॥ पाएहिं महिं गाढं, गावो कुदंति अंसुपुन्नडच्छा । जइ ता न केवलो च्चिय, रोगो मरणं पि तप्पहुणो ॥७९॥ इय सज्जाऽयत्थकए, सउणसरूयं पयासियं किंपि । संपड़ गिलाणविसयं पि, किंपि साहेमि निसुणेह ॥८॥ जइ पिटुंडतं चट्टइ, सुणहो बलिऊण दाहिणदिसाए । तो मरइ वाहिघत्थो एगदिणउभंतरे मुणह ॥८१॥ जड लिहइ उरं तो दोन्नि. यासरे चट्रियंमि नंगले । दियहाई तिन्नि जीवइ, णिवेइयं साणसउणेणं जड़ सव्वंगं संकोचिऊण, सोवइ निमित्तकालंमि । तो जाणह वाहिल्लो, गयजीओ तक्खणे जातो . ॥८३॥ धुणिऊण कन्नजुयलं, अंगं बलिऊण धुणइ जइ सुणओ । ता मरइ रोगगहिओ, इंदो वि न रक्खिउं तरइ ॥८४॥ याइयवयणो लाला-मुयंतओ झंपिऊण नयणजुयं । संकोचिऊण अंगं, सोवंतो जमपूर्षि नेइ
॥८५॥ वायसपक्खिसमूहो, आउरगेहस्स उवरि जइ मिलिओ । संझासु तीसु दीसइ, तो जाण विणासए जीयं ॥८६॥
यणीयगेहे. महाणसे या ठविन्ति किर कागा । चम्म रज्जं वालं हड्डं या सो यि लह मरिही [सउणदारं ॥८॥ अह एतो कित्तिज्जड़, अव्यभिचरियं उवस्सुइदारं । तत्थ पसत्थम्मि दिणे, जाए जणसुयणसमयम्मि ॥८॥ अंतो बहिं व लिंपित्तुमुदरेणऽद्दचंदणेण तओ । गंधसमुद्धरबंधुरगंधेहिं समभिवासित्ता
॥८९॥ सूरी परंपराऽऽगय-गणहरगणमणभिरामणीएण । मंतेणं कन्नजुयं, अभिमंतिता पयत्तेणं
3ળા पंचनमोक्कारेण वि, अहवा क्यदेवयागुरुपणामो गंधक्खयजुयहत्थो, सियवत्थकउत्तरासंगो
॥९१॥ आउपरिमाणकए, क्यपणिहाणो अणडन्नचित्तो य । परिपिहियकन्नकुहरो, विणिक्खमित्ता सठाणातो
॥९२॥ | उत्तरईसाणपसत्थ-दिसिमुहं अह कमेण गंतुण । चंडालवेससिप्पिय-चच्चरतियवलणदेसेसु
॥९३॥ पक्विविय अक्खए गंध-बंधुरे तो उवस्सुइसदं । अवधारेज्जा सम्म सो सद्दो उण दुहा नेओ ॥९४॥ | एगो य पयत्यंतर-यवएसा तस्सरुवगो इयरो । पढमो चिंतागम्मो फुडकहियऽत्थो च्चिय परो उ ॥९५॥ जह एस गिहत्थंभो, एवइयदिणेहिं अहव पक्रोहिं । मासेण बच्छरेण व, भज्जिस्सइ नेव या नूणं ॥१६॥ आसि असुंदरो बा, किं तु लहुं एस भज्जए लग्गो । चिरठाई वा दीयो, अहया लहुं नंदए लग्गो ॥१७॥ पीढीदीवसिहाकट्ठ-पत्तिपभिईउ जाण थीविसए । इच्वाइपयत्यंतर-ववएसा उवसुईसद्दो ।
॥९८॥ 1. रप्फु = वल्मीक = राफडो इति भाषायाम्। 2. पीढी = पीढिउं (देशी)।
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