Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
आपका प्रवचन होता था। दिनांक २४-५-७८ को दोपहर में प्रवचन में आपने कहा था कि मुनि की निद्रा पौण सैकण्ड मात्र होती है। यह सुनकर मैं आश्चर्य में पड़ गया। क्योंकि किसी भी सिद्धान्तशास्त्र में मैंने ३/४ सैकण्ड निद्रा का नियामक वचन नहीं पढ़ा था। तो उसी दिन सायं मैंने शंका की कि-आपने आज प्रवचन में मुनिनिद्रा का काल ३/४ सैकण्ड मात्र बताया सो क्या छठे गुणस्थान का काल ३/४ सैकण्ड मात्र ही है ? यदि हाँ, तो शास्त्रों में कहाँ उल्लिखित है ? यदि नहीं तो स्ववचन विरुद्धत्व का अपरिहार्य प्रसङ्ग समुपस्थित होता है। मुनिनिद्रा इतनी ही क्यों है, बतावें? इस पर श्री कानजीस्वामी का उत्तर था कि मुनि की निद्रा ३/४ सैकण्ड ही है. इससे ज्यादा नहीं; परन्तु इसके बारे में विशेष तो मुख्तार जाने, मुझे ज्ञात नहीं। इस पर तत्काल डा० भारिल्ल साहब बोल उठे कि कौन मुख्तार ? तो स्वामीजी ने कहा कि "रतनचन्द मुख्तार सहारनपुर वाले।"
__ जब उन्होंने अपनी एतद्विषयक बुद्धि का मूल ही गुरुवर्यश्री रतनचन्द को बतला दिया तब मैंने आगे प्रश्न करना अनुचित समझा एवं शान्त बैठ गया।
__ जब उदयपुर के अग्रवाल तेरह पन्थ मंदिरजी में वेदी प्रतिष्ठा थी तब पण्डित हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री को साढमल से बुलाया गया था। मैं भी पण्डित साहब के दर्शनार्थ उदयपुर गया। वहाँ मैंने अपनी कुछ सैद्धान्तिक शंकाएँ भी रखीं और उन्होंने समाधान प्रस्तुत किये। इसी बीच उन्होंने पूज्य निकाला और उनके बारे में कहा कि-"ब्रह्मचारी पण्डित रतनचन्द मुख्तार मुझे गुरु म कि गुरु गूड रह गये, चेला शक्कर हो गये । रतनचन्द मुख्तार का ज्ञान तो गजब का ही है। सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि वे ज्ञानी होते हुए भी त्यागी हैं। धवलादि का उनका सूक्ष्मतम बोध है।" फिर मैंने पूछा कि मैं आपको सैद्धान्तिक शकाएँ परिहारार्थ भेजना चाहता है। तो पण्डित हीरालालजी ने एक ही उत्तर दिया कि-धवलादि की शंकाओं के समाधान के लिये रतनचन्दजी से ही मिलिये।
धन्य हो उन्हें कि जिन्हें शीर्षस्थ विद्वान् भी अपने से उच्चस्तरीय बोद्धा के रूप में देखते थे।
एक बार मैंने आपसे कहा कि आपको तो भारत में बहुत कम व्यक्ति जानते हैं। तो पूज्य गुरुवर्य ने तत्काल उत्तर दिया कि “भाई ! ख्याति सम्यक्त्व व मोक्ष का कारण नहीं, अतः जिसे ख्याति की चाह है वह निदान आर्तध्यान वाला है। इस पुद्गल की ख्याति मैं नहीं चाहता । अनन्त चक्रवर्ती हए उनके नाम भी लोग भूल गये, आज उनके नाम कोई नहीं जानता है। ढाईद्वीप में अभी जो सँख्यात अव्रती सम्यक्त्वी मनुष्य हैं उन सभी के नाम हम नहीं जानते हैं । इतना ही नहीं, विहरमान व वर्तमान लाखों केवलियों के भी नाम आप हमको ज्ञात नहीं; तो इससे उनको कोई नुकसान हो गया क्या? भाई ! इससे उनका क्या होना-जाना है, उनके कोई कमी नहीं हो जाती। उसी तरह से हमारी ख्याति न भी हो तब भी स्वकीय-आत्म गुणों में कमी नहीं हो जाती। ख्याति चाहना जीवन की विफलता है, ख्याति न चाहो।"
अभी-अभी सन् १९७८ की बात है कि सहारनपुर में बाढ़ आई; जिससे आपका मकान भी क्षतिग्रस्त हो गया। दो-तीन दिन तक मकान के चारों तरफ पानी भरा रहा ( कुछ ऊँचाई तक ) । आप उस समय आनन्दपुरकाल (राज.) में पूज्य आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी महाराज के संघ में थे। घर पर कोई नहीं था। आपको सहारनपुर लौटने पर स्थिति की जानकारी मिली। तब आपने क्षतिग्रस्त मकान की मरम्मत करवाई। कुछ दिनों बाद मुझे भी ज्ञात हुआ, जानकर महान् दुःख हुआ। पत्र द्वारा मेरी दुःखाभिव्यक्ति प्राप्त होने पर आपने उत्तर लिखा
"देखो भाई ! मकान को बाढ़ से क्षति पहुँची है, यह तो होना था सो हुआ । मकान परिग्रह है तथा परिग्रह पाप है। पाप यदि थोड़ा क्षतिग्रस्त (कमी को प्राप्त) हो गया तो इसमें चिन्ता की बात क्या ?"
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