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जो पाषाण हृदय दूसरे को कष्ट से प्रकम्पमान देखकर भी प्रकम्पित नहीं होता, वह अनुकम्पा - रहित ही कहलाता है। चूँकि अनुकम्पा का अर्थ ही हैकाँपते हुए को देखकर कंपित होना ।
- बृहत्कल्पभाष्य ( १३२० )
ववसायफलं विहवो विश्वस्स य विहलजणसमुद्धरणं । विहलुद्धरणेण जसो जसेण भण किं न पज्ञत्तं ॥
व्यवसाय का फल है विभव और विभव का फल है, विह्वलजनों का उद्धार । विहलजनों के उद्धार से यश प्राप्त होता है और यश से कहो क्या नहीं मिलता ?
-- वजालग्ग ( १०/१० )
बाला य बुड्ढा य अजंगमा य, लोगेवि एते अणुकंपणिजा । बालक, वृद्ध और अपंग व्यक्ति, विशेष अनुकम्पा के योग्य होते हैं । - बृहत्कल्पभाष्य ( ४३४२ )
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मा होह णिरणुकंपा ण वंख्या कुणह ताव संतोसं । माणत्थद्धा मा होह णिक्किंपा होह दाणयरा ॥
अनुकम्पा से रहित मत होओ, कृपा से रहित मत बनो, किन्तु सन्तोष करो, घमण्ड में स्थित मत होओ अपितु दान में तत्पर बनो ।
- कुवलयमाला ( अनुच्छेद ८५ )
दिन्नं हइ, अप्पेइ पत्थियं, असइ, भोयणं देइ । अक्खर गुज्झं पुच्छे इ पडिवयं जाण तं रत्तं ।
जो दी हुई वस्तु को ग्रहण करता है, प्रार्थित वस्तु लाकर देता है, खाता है और खिलाता है, गुप्त भेद बताता है और प्रतिक्षण सुख-दुःख पूछता रहता है— उसे अनुरक्त समझो ।
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अनुरक्त
- वजालग्ग (४२ / ६ ) [ १७
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