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मणि-मंत-ओसहीणं, जंततंताण देवयाणं पि।
भावेण विणा सिद्धी, न हु दीसइ कस्स वि लोए । मणि, मन्त्र, औषधि, यन्त्र, तन्त्र और देवता की साधना जगत में किसी को भी भाव के बिना सफल नहीं हो सकती। भाव के योग से ही सभी वस्तुओं की सिद्धि होती है ।
-भावकुलकम् (३)
भिक्षु स एव भिक्खू, जो सुद्धचरति बंभचेरं । जो शुद्ध भाव से ब्रह्मचर्य पालन करता है, वही भिक्षु है ।
-प्रश्नव्याकरण-सूत्र ( २/४) समदिढि सया अमूढे, अस्थि हु नाणे तवे संजमे य। तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, मण-वय काय सुसंवुडे जे स भिक्खू ॥
जो सम्यग्दशी है, कर्तव्य-विमूढ़रहित है, ज्ञान-तप और संयम के प्रति दृढ़ श्रद्धालु है, मन-वचन और देह को पाप-पथ पर जाने से रोकता है तथा तप द्वारा पूर्वकृत पाप-कर्मों को नाश कर देता है, वही भिक्षु है ।।
-दशवैकालिक (१०/७) समसुह-दुक्खसहे अ जे स भिक्खू। . भिक्षु वही है, जो सुख-दुःख में समभाव रखता है।
--दशवैकालिक (१०/११) विइत्तु जाई-मरणं महन्भयं । तवे रए सामणिए जे स भिक्खू । __ वह भिक्षु है, जो जन्म-मरण को महाभयंकर जानकर नित्य ही भमण के कर्तव्य को दृढ़ करनेवाले तपश्चरण में तत्पर रहता है ।
-दशवकालिक (१०/१४) अज्झप्परए सुसमाहि अप्पा, सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खू ।
जो नित्य अध्यात्म-चिंतन में रत रहता हुआ अपने आपको समाधिस्थ करता है और सूत्रों के अर्थ को पूर्ण रूप से जानता है, वही भिक्षु है ।
-दशवैकालिक (१०/१५) १६६ ]
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