Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 298
________________ जस्स समाणिओ अप्पा, संजमे णिअमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इह केवलि भासि। जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में तल्लीन है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है। -अनुयोगद्वार-सूत्र (१२७) अलधुयं नो परिदेवइज्जा, लधुं न विकत्थयई स पुज्जो। जो अलाभ होने पर खिन्न नहीं होता और लाभ होने पर अपनी बड़ाई नहीं हांकता, वही पूज्य है । –दशवैकालिक (६/३/४ ) जो रागदोसेहि समो स पुज्जो। जो राग-द्वेष के प्रसंगो में सम रहता है, वही व्यक्ति पुज्य है । -दशवैकालिक (६/३/११) चारित्तं समभावो। समभाव ही चारित्र है। -पंचास्तिकाय (१०७) लाहालाहे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो निंदा पसंसासु, समोमाणावमाणओ॥ साधक को लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में समत्व रखना चाहिए । -उत्तराध्ययन (१६/६१) जे इंदियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न याऽमणुन्नेसु मणं पि कुजा, समाहिकामे समणे तवस्सी॥ समाधि का इच्छुक तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग न करे और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष भी न करे । -उत्तराध्ययन (३२/२१) लाभुत्ति न मजिजा, अलाभुत्ति न सोइज्जा। २७८ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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