Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 302
________________ सम्यग्दर्शन नादसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स णस्थि मोक्खो, णत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान नहीं पाया जा सकता, ज्ञान के अभाव में चारित्र के गुण प्राप्त नहीं होते और चारित्रगुण के अभाव में मोक्ष (कर्मक्षय) नहीं हो सकता । और मोक्ष के बिना निर्वाण (अनंत आनन्द) नहीं होता। -उत्तराध्ययन ( २८/३० ) निस्संकिय निक्कंखिय, निन्वितिगिच्छा अमूढट्ठिीअ । उवबूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अछ ।। सम्यग्दर्शन के ये आठ गुण या अंग हैं-निःशकित्व, निःकांक्षित्व, निर्विचिकित्सत्व, अमूढदृष्टित्व, उपवृहणत्व ( उपगृहनत्व ), स्थितिकरणत्व, वात्सल्यत्व एवं प्रभावना । -उत्तराध्ययन ( २८/३१) दसणसपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ, परं न विज्झायइ । अणुत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्म भावेमाणे विहरइ ॥ दर्शन-सम्पन्नता से जीव संसार के हेतु मिथ्यात्व का छेदन करता है, उसके सम्यक्त्व का प्रकाश बुझता नहीं है । श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन से आत्मा को संयोजित कर उन्हें सम्यक् प्रकार से आत्मसात करता हुआ विचरण करता है ।। -उत्तराध्ययन ( २६/६१) दसण......सोवाणं पढम मोक्खस्स । सम्यग्दर्शन मोक्ष का प्रथम सोपान है । -दर्शन-पाहुड ( २१) दसणमूलो धम्मो। 'दर्शन' धर्म का मूल है । -दर्शन-पाहुड (२) २८२ ] Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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