Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 309
________________ साहसी मेरु तिणं व सग्गो घरं गणं हत्थ छित्तं गयणयलं । वाहलिया य समुद्दा साहसवंताण पुरिसाणं ।। साहसी पुरुषों के लिए मेरु तृण के समान, स्वर्ग घर के आँगन के समान, आकाश हाथ से छुए हुए के समान और समुद्र क्षुद्र नदीनालों के समान हो जाता है। -वज्जालग्ग (६/१५) साहसमवलंबंतो पावइ हियइच्छियं न संदेहो । जेणुत्तमंगमेत्तेण राहुणा कवलिओ चंदो॥ साहस का अवलम्बन करता हुआ मनुष्य मनोवांछित फल प्राप्त करता है-इसमें सन्देह नहीं। राहु के केवल मस्तक ही था (शरीर, हाथ, पाँव आदि नहीं थे ), फिर भी चन्द्रमा को निगल गया। -वज्जालग्ग (१०/१ तं कि पि साहसं साहसेण साहति साहससहावा जं भाविऊण दिवो परंमुहो धुणइ नियसीसं ॥ साहस पूर्ण स्वभाववाले पुरुष-अपने साहस से कुछ ऐसा साहसमय कार्य सिद्ध कर लेते हैं कि जिसे देखकर प्रतिकूल भाग्य ( पराजय के कारण) अपना सिर धुनने लगता है। -वज्जालग्ग (१०/२) जावय ण देन्ति हिययं पुरिसा कज्जाई ताव विहणंति । अह दिण्णं चिय हिययं गुरु पि कज्जं परिसमत्तं ॥ जब तक साहसी पुरुष कार्यों की तरफ अपना हृदय/ध्यान नहीं देते हैं तभी तक कार्य पूरे नहीं होते हैं। किन्तु उनके द्वारा कार्यों के प्रति हृदय लगाने से ही बड़े कार्य भी पूर्ण कर लिये जाते है। -कुवलयमाला सुख सव्व गंथविमुक्को, सीईभूओ पसंतचित्तो अ॥ जं पावइ मुत्तिसुह, न चक्कवट्टी वि तं लहइ ।। [ २८६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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