Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 311
________________ बार-बार मोह-गुणों पर विजय पाने को यत्नशील संयम में विचरण करते समय श्रमण को अनेक प्रकार के प्रतिकूल स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषय परेशान करते हैं, किन्तु भिक्षु उन पर मन से भी द्वेष न करे । - उत्तराध्ययन (४/११ ) अनुकूल मंदा य फासा बहु-लोहणिज्जा । स्पर्श बहुत लुभावने होते हैं । - उत्तराध्ययन ( ४/१२ ) स्वाध्याय नवि अत्थि न विअ होही, सज्झाय समं तवो कम्मं । स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में हुआ, न वर्तमान में कहीं है और न अनागत में कभी होगा । पूयादिसु णिरवेक्खो, जिणसत्थं जो पढेइ भत्तीए । कम्ममल सोहणट्ठ, सुयलाहो सहयरो तस्स ॥ जो योगी बहुमान एवं भक्तिभावना से शास्त्रों का पठन व ज्ञान का लाभ अत्यन्त सुलभ हो पूजा-प्रतिष्ठा आदि की चाह से निरपेक्ष, भाव से अथवा कर्ममल का शोधन करने की मनन आदि करता है, उसके लिए श्रुत या जाता है । - बृहत्कल्पभाष्य ( ११६६ ) -- कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( ४६२ ) सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ | स्वाध्याय के द्वारा आत्मा अपने ज्ञान पर आवृत्त आवरणों को हटाता है, ज्ञानावरणीय कर्म-बन्धन का क्षय करता है । Jain Education International 2010_03 - उत्तराध्ययन ( २६ / १८ ) वयणमयं पडिकमणं, वयणमयं पच्चक्खाण नियमंच | आलोयण वयणमयं, तं सव्वं वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, आलोचना - ये सब स्वाध्याय ही हैं । जाण सज्झाउ ॥ वचनमय नियम और वचनमय — नियमसार (४२७ ) [ २६१: For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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