Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 305
________________ जो समस्त धर्मों के प्रति ग्लानि नहीं करता, उसी को निर्विचिकित्सा गुण सम्पन्न सम्यग्दृष्टि समझना चाहिये । -समयसार ( २३१) जो हवइ असम्मूढो, चेदा सहिट्ठी सव्वभावेसु । सो खलु अमूढदिट्ठी, सम्मादिट्ठी मुणेयन्वो ॥ जो समग्र भावों के प्रति जागरूक है, विमूढ़ नहीं है, निर्भ्रान्त है, दृष्टिसम्पन्न है, वह अमूढ़दृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है ।। -समयसार ( २३२) अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्टी हवेइ फुडु जीवो। जो स्वयं, अपने आप में लीन है, वही वास्तव में सम्यग्दृष्टि है । -भावपाहुड़ (३१) हेयाहेयं च तहा, जो जाणइ सो हु सहिट्ठी। जो हेय और उपादेय को जानता है, वही वस्तुतः सम्यग्दृष्टि है। -सूत्रपाहुड़ (५) सम्मदिट्ठी सया अमूढे । जिसकी दृष्टि सम्यग् है वह कभी कर्तव्य-विमूढ़ नहीं होता। -दशवैकालिक (१०/७) सम्माइट्ठी कालं बीलइ वेरग्गणाणभावेण । मिच्छाइट्ठी वांछा दुब्भावालस्सकलेहिं ॥ सम्यग्दृष्टि पुरुष समय को वैराग्य और ज्ञान से व्यतीत करते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि पुरुष दुर्भाव, आलस्य और कलह से अपना समय व्यतीत करते हैं। -रयणसार (५७) अणोमदंसी णिसन्ने पावेहि कम्महि । परम को देखनेवाला पुरुष पापकर्म का आदर नहीं करता। -आचारांग ( १/३/२) [ २८५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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