Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 303
________________ दसणभट्ठो भट्ठो, दसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं। सिझंति चरणरहिआ, दसणरहिआ ण सिझंति ॥ . जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वास्तव में वही भ्रष्ट है, क्योंकि सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट या पतित को निर्वाण-पद प्राप्त नहीं हो सकता। चारित्रहीन तो कदाचित सिद्ध हो भी जाते हैं, परन्तु दर्शनहीन कभी भी सिद्ध नहीं होते। __ -भक्त-परिज्ञा (६६) दसणमुक्को य होइ चलसवओ। सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति चलता-फिरता 'शव' है । -भावपाहुड़ ( १४३) सम्मईसणलंभो वरं खु तेलोक्कं लंभादो । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तीन लोक के ऐश्वर्य से भी अच्छी है । -भगवती-आराधना (७४२) समत्तदंसी न करेइ पावं । सम्यग्दर्शी कभी पाप नहीं करता। -आचाराङ्ग ( १/३/२) दसणसुद्धो सुद्धो, दसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं । दसणविहीण पुरिसो, न लहइ तं इच्छियं लाहं । जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है, वही निर्वाण प्राप्त करता है । सम्यग्दर्शन-विहीन मानव इच्छित लाभ नहीं कर पाता है। -मोक्षपाहुड़ (३६) दंसह मोक्खमग्गं । मोक्षमार्ग का प्रदर्शक ही दर्शन है। -बोध-पाहुड़ (१४) दसणायारो अट्ठविहो णिस्संकिय णिक्कंखिय, णिग्विदिगिंछो अमूढदिट्ठी य । उवगृहणं थिदिकरणं, वच्छल्लं पहावणा चेदि ॥ [ २८३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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