Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 301
________________ तओ काले अभिप्पेए, सड्ढी तालिसमन्तिए । विणएज्ज लोम-हरिसं भेयं देहस्स कंखए ॥ जब मरण-काल आए, तो जिस श्रद्धा से प्रवज्या स्वीकार की थी, तदनुसार ही भिक्षु गुरु के समीप पीड़ाजन्य लोम हर्ष को दूर करे तथा शान्तिभाव से शरीर के भेद अर्थात् पतन की प्रतीक्षा करे। -उत्तराध्ययन (५/३१) अहं कालंमि संपत्त, आघायाय समुल्सयं । सकाम-मरणं मरई, तिहमन्नयरं मुणी ।। मृत्यु का समय आने पर सुनि भक्त-परिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन -इन तीनों में से किसी एक को स्वीकार कर समाधिपूर्वक सकाम-मरण से शरीर को छोड़ता है। -उत्तराध्ययन ( ५/३२) समाधिस्थ समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा, तवो य पन्ना य जस्सो वड्ढइ । जो अग्निशिखा के समान प्रदीप्त तथा प्रकाशित समाधिस्थ है, उसके तप, 'प्रज्ञा और यश लगातार वृद्धि को प्राप्त होते हैं । -आचारांग ( २/४/१६) सम्मान नमिऊण जं विढप्पइ खलचलणं तिहयणं पि किं तेण । माणेण जं विढप्पइ तणं पि तं निव्वुई कुणइ ।। मुखों के चरणों में प्रणत होकर यदि त्रिभुवन भी उपार्जित कर लिया जाय तो उससे क्या लाभ ? सम्मान से यदि तृण भी उपार्जित हो तो वह सुख उत्पन्न करता है। -वज्जालग्ग (४५/१००) [ २८१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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