Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 299
________________ प्राप्त होने पर गर्व न करे और प्राप्त न होने पर शोक न करे । - आचारांग ( १/२/५ ) मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो । मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का विशुद्ध परिणमन ही समत्व है । - प्रवचनसार (१/७ ) समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगोति । जो श्रमण सुख-दुःख में समान योग रखता है, वही शुद्धोपयोगी कहा गया है । --प्रवचनसार ( १ / १४ ) एवं ससंकष्पविकपणासुं, संजायई समयमुवट्ठियस्स । अत्थे य संकपओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तन्हा ॥ * अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प - विकल्प ही सब दोषों के मूल हैं - जो इस प्रकार के चिन्तन में उद्यत होता है और इन्द्रिय-विषय दोषों के मूल नहीं है - ऐसा जो संकल्प करता हैं, उसके मन में समता जागृत होती है । उसकी काम-गुणों की तृष्णा क्षीण होती है । उससे - - उत्तराध्ययन ( ३२ / १०७ ) संलेहणा य दुविहा, अब्भितरिया य बाहिरा चेव । अभितरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे ॥ Jain Education International 2010_03 समाधि मरण संलेखना अर्थात् पण्डिततमरण दो प्रकार का होता है—आभ्यन्तर तथा बाह्य । कषायों को कृश करना आभ्यन्तर संल्लेखना है और शरीर को कृश करना बाह्य | इक्कं पंडियमरणं, छिंदह जाईसयाणि बहुयाणि । तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ ॥ For Private & Personal Use Only - मरणसमाधि ( १७६ ) [ २७६ www.jainelibrary.org

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