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शत्रु-मित्र, मणि-पाषाण, स्वर्ण - मृतिका में राग-द्वेष के अभाव को समता
कहते हैं ।
किं काहदिवणवासो, कायकलेसो विचिन्त्त उववासो । समदारहियस्स समणस्स ॥
अज्झयणमोणपहुदी,
जो समता से रहित श्रमण है, उसका वनवास, कायक्लेश, विचित्र उपवास और अध्ययन सब व्यर्थ हैं ।
जो समो सव्वभूरसु, तसेसु थावरेसु अ । तस्स सामाइयं होइ, इह केवलि भासिअं ॥
- धवला (८/३, ४१/१ )
जो स और स्थावर सभी जीवों के प्रति समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा परमज्ञानी केवली ने परिभाषित किया है ।
- नियमसार (१२६ )
समभावो सामायियं ।
समभाव ही सामायिक है ।
सव्वत्थेसु समंचरे |
मनुष्य को सर्वत्र समभावी रहना चाहिये ।
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- नियमसार ( १२४ )
- निशीश - चूर्णि (२८४६ )
--इतिभासियाई ( १/८ )
सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए ।
सामायिक अर्थात् समभाव उसी को रह सकता है, जो स्वयं को प्रत्येक भय से मुक्त रखता हो ।
तण कणए
समभावा ।
तृण और कनक में समान बुद्धि रखनी चाहिए ।
- सूत्रकृतांग ( १/२/२/१७ )
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-बोध- पाहूड़ ( ४७ ) [ २७७
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