Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 295
________________ लद्धा सुरनररिद्धी, विसया वि सया निसेविआणेण । पुण संतोसेण विणा, किं कत्थ वि निव्वुई जाया ॥ इस जीव ने दैविक और मानुषिक दोनों ऋद्धियाँ प्राप्त की एवं विषयभोग का भी बारम्बार सेवन किया, तथापि संतोष के बिना उसे किसी भी स्थान में सामान्य-सी शान्ति नहीं मिली। -आत्मावबोधकुलक (१४) सन्तोषी संतोसिणो ण पकरेंति पावं। सन्तोषी व्यक्ति कभी कोई पाप नहीं करते । -सूत्रकृतांग ( १/१२/१५) सएणं लाभेणं तुस्सइ, परस्स लाभं णो आसासए । दोच्चा सुहसेज्जा। जिसे जितना लाभ प्राप्त हुआ है, उसी में संतुष्ट रहनेवाला और दूसरों के लाभ की इच्छा नहीं रखनेवाला व्यक्ति सूखपूर्वक सोता है ।। -स्थानांग (४/३) समगुणी हंसा रच्चंति सरे, भमरा रच्चंति केतकीकुसुमे। चंदणवणे भुयंगा, सरिसा सरिसेहिं रच्चंति ॥ हंस सरोवर में प्रीति करते है, भौंरे केतकी के फूलों में राग करते हैं, सर्प चन्दन के वन में आनन्द मानते हैं और समान गुण धर्मवाले समान गुण धर्मवालों में प्रेम करते हैं। -कामघट-कथानक (५६) [ २७५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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