Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 293
________________ छंदं से पडिलेहए। व्यक्ति के अन्तर्मन को परखना चाहिये। __ -दशवैकालिक (५/१/३७) बीयं तं न समायरे । एक बार भूल होने पर दुबारा उसकी आवृत्ति न करें। -दशवैकालिक (८/४७) अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अन्तरा। बिना पूछे व्यर्थ ही किसी के बीच में नहीं बोलना चाहिये । -दशवैकालिक (८/४७ ) अलं विवाएण णे कतमुहेहि। विद्वान के साथ विवाद नहीं करना चाहिए। -निशीथ-भाष्य ( २६१३) सव्वपाणा न हीलियम्वा, नीदियव्वा । विश्व के किसी भी प्राणी की न अवहेलना करनी चाहिए और न ही निन्दा। -प्रश्नव्याकरण सूत्र (२/१) णातिवैलं हसे मुणी। मर्यादा से अधिक नहीं हंसना चाहिए। ___ -सूत्रकृताङ्ग ( १/६/२६ ) ववहारेञ्चिअ छायं णिएह लोअस्स किं व हिअएण | तेउग्गमो मणीण वि जो बाहिं सोण भंगम्मि॥ व्यवहार से ही मनुष्य के स्वाभाविक रंग रूप को देखो, उसके हृदय से क्या ? मणियों के भी प्रकाश का उद्भव जो बाहर की ओर से होता है वह उनके टूटने पर भीतर से नहीं होता है । -ग उडवहो (६६३) [ २७३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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