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जिस प्रकार गंध रहित पुष्प भी देवता का प्रसाद है ऐसा मानकर सिर पर रख लिया जाता है उसी प्रकार सज्जन लोगों के बीच रहने वाला दुर्जन भी पूजनीय हो जाता है ।
-अर्हत्प्रवचन (१०८) दुज्जण संसग्गीए पजहदि णियगं गुणं खु सुजणो वि।
सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण ॥ दुर्जन की संगत से सज्जन भी निश्चय ही अपने गुण को छोड़ देता है । जैसे जल अग्नि के संयोग से अपने शीतल स्वभाव को छोड़ देता है।
-अर्हत्प्रवचन (१०/११)
सद्गुण कंखे गुणे जाव सरीर-भेओ। शरीर-भेद अर्थात् मृत्यु के अन्तिम क्षणों तक सद्गुणों की आराधना करनी चाहिये।
-उत्तराध्ययन (४/१३) आगासे गंग सोउव्व, पडिसोओ व्व दुत्तरो। बाहाहि सागरो चेव, तरियन्वो गुणोयही ॥ जैसे आकाश-गंगा का स्रोत एवं प्रतिस्रोत दुस्तर है। जिस प्रकार सागर को भुजाओं से तैरना दुष्कर है, वैसे ही गुणोदधि को तैरना दुष्कर है ।
-उत्तराध्ययन ( १६/३७)
सद्व्यवहार खुड्डेहिं सह संसम्गि, हासं कीडं च वज्जए । क्षुद्र लोगों के साथ संपर्क, हंसी मजाक, क्रीड़ा आदि नहीं करना चाहिए।
-उत्तराध्ययन ( १/४) सरिसो होइ बालाणं। बुरे के साथ बुरा होना, बचपना है। -उत्तराध्ययन (२/२४) २७२ ]
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