Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 291
________________ दुर्जन मनुष्य सज्जनों की संगति से पूर्व दोषों को छोड़कर गुणों से युक्त होता है । जैसे-कौवा मेरू का आश्रय लेने से अपनी स्वभाविक मलीन कान्ति को छोड़कर स्वर्ण कान्ति का आश्रय लेता है। ____-भगवती-आराधना (३५०) कलुसी कदंपि उदयं अच्छं जह होइ कदय जोएण । कलुसो वि तहा मोहो उवसमदि हु बुड्ढ सेवाए। जैसे मलीन जल भी कतक फल के संयोग से स्वच्छ होता है वैसे ही कलुष मोह भी शील वृद्धों के संसर्ग से शान्त होता है । -भगवती-आराधना (१०७३) तरुणस्स वि वेरग्गं पण्हाविज्जदि णरस्स बुड्ढे हिं। पण्हाविज्जइ पाऽच्छी वि हु वच्छस्स फरूसेण ॥ जिस तरह बछड़े के स्पर्श से गौ के स्तनों में दुग्ध उत्पन्न होता है उसी -तरह ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध और तपो वृद्ध के सहवास से तरुण के मन में भी वैराग्य उत्पन्न होता है। -भगवती-आराधना (१०३) उत्तमजणसंलग्गी, सीलदरिदपि कुणइ सीलड्ढं। जह मेरुगिरी विलग्गं, तणंपि कणगत्तण मुवेई ॥ जैसे मेरू पर्वत पर पैदा हुई घास भी स्वर्णपन को प्राप्त करती है वैसे ही उत्तम जन की संगति सदाचार रहित पुरुष को भी सदाचारी बना देती है । -संबोध-सत्तरि (६४) सज्जण-संगेण वि दुज्जणस्स ण हु कलुसिमा समोसरई । ससि-मण्डल मज्म-परिडिओ, वि कसणोञ्चिय कुरंगो।। सज्जन की संगति से भी निश्चय ही दुर्जन की कालिमा/दुष्टता दूर नहीं होती है क्योंकि चन्द्रमण्डल के बीच में रहने वाला मृग भी काला ही है । -लीलावई-कहा (१६) कुसुममगंधमिव जहा देवय सेसत्ति कीरदे सीसे। तह सुयणमसवासी वि दुज्जणो पूइओ होइ॥ [ २७१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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