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एक पण्डितमरण सैकड़ो जन्मों का नाश कर देता है । अतः इस तरह मरना चाहिये, जिससे मरण, सुमरण हो जाय ।
इक्कं पंडियमरणं, पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो । खिष्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं तणंताणं ॥
सत् पुरुष एकमात्र पण्डित-मरण का प्रतिपादन करते हैं, क्योंकि वह शीघ्र ही अनन्त मरणों का अन्त कर देता है ।
- मरणसमाधि ( २४५ )
धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्स मरियव्वं ।
तम्हा अवस्मरणे, वरं खु धीरतणे मरिउं ॥
क्या धीर और क्या कापुरुष, सबको ही अवश्य मरना है । जब मरण व्यवश्यम्भावी है, तो फिर धैर्य पूर्वक मरना ही उत्तम है ।
— मरणसमाधि ( ३२१ )
- मरणसमाधि ( २८० )
लाभंतरे जीविय वूहइता, पच्चा परिणाय मलावधंसी || साधक को जब जीवन एवं देह से लाभ होता हुआ दिखाई न दे तो वह परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे ।
- उत्तराध्ययन (४/७ )
वि कारणं तणमओ, संथारो णवि य फासुया भूमी । अप्पा खलु संधारो, होइ विसुद्धो मणो जस्स ॥ न तो तृणमय संस्तर ही संल्लेखना -मरण का कारण है और न ही प्रासुक भूमि । जिसका मन शुद्ध है, ऐसा आत्मा ही वास्तव में संस्तारक है । - महाप्रत्याख्यान - प्रकीर्णक ( ६६ )
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तुलिया विसेलमादाय, दयाधम्मस्स खन्तिए । विप्पसीएज्ज मेहावी, तहा भूपण अप्पणा ॥
बालमरण और पंडित मरण की परस्पर तुलना करके मेधावी साधक विशिष्ट सकामे मरण को स्वीकार करे और मरणकाल में दयाधर्म एवं क्षमा से पवित्र तथा अभिभूत आत्मा से प्रशन्न रहे ।
- उत्तराध्ययन ( ५ / ३० )
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