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अरे कलिकाल रूपी महागजेन्द्र ! तुम्हारी गर्जना का यह कौन-सा अवसर है ? आज भी यह पृथ्वी सत्पुरुष रूपी सिंह-कुमार के चरणों से अङ्कित है।
-वज्जालग्ग ( ४/१२) दीणं अब्भुद्धरिउं पत्ते सरणागए पियं काउं ।
अवरद्ध सु वि खमिउं सुयणो च्चिय नवरि जाणेइ ॥ - दीनों का उद्धार करना, शरणागत का प्रिय-मङ्गल करना और अपराधियों को भी क्षमा कर देना-ये केवल सज्जन ही जानता है ।
-वज्जालग्ग (४/१३) सेला चलंति पलए मजायं सायरा वि मेल्लति ।
सुयणा तहिं पि काले पडिवन्नं नेय सिढिलंति ।। प्रलय-काल में पर्वत भी चलायमान हो जाते हैं, सागर भी अपनी सीमायें छोड़ देते हैं ; किन्तु सज्जन मनुष्य उस काल में भी अपने वचन को भङ्ग नहीं करते।
- वज्जालग्ग (४/१६) सरिहि न सरेहि न सरवरेहिं न वि उजाणवणेहिं । देस रवण्णा होंति बढ़ ! निवसन्तेहिं सुअणेहिं ।। अरे मूर्ख ! न नदियों से, न झीलों से, न तालाबों से और न उद्यान-वनों से देश रमणीय होते हैं, अपितु सज्जनों के रहने से रमणीय होते हैं ।
_ -प्राकृत-व्याकरण ( ४/४२२) सिरि चडिआ खंतिफलई पुणु डालई मोडंति ।
तो वि महदुम सउणाहं अवराहिउ न करंति ॥ पक्षी गण महावृक्षों के शिखर भाग पर बैठते हैं, उन फलों को खाते हैं तथा शाखाओं को तोड़ते-मरोड़ते हैं फिर भी वे महावृक्ष सज्जन की तरह उन पक्षियों को अपराधी नहीं मानते हैं ।
-प्राकृत व्याकरण (४/४४५) सम्माणेसु परियणं पणइयणं पेसवेसु मा विमुहं ।
अणुमण्णह मित्तयणं सुपुरिसमग्गो फुडो एसो।। २६६ ]
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