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परसंतावयकारण वयणं मोत्तण सपरहिदवयणं ।
जो वददि भिक्खु तुरियो, तस्स दु धम्मो हवे सच्च ॥ जो भिक्षु दूसरों को संताप पहुँचाने वाले वचनों का त्याग करके स्व-परहितकारी वचन बोलता है, उसके सत्य-धर्म होता है ।
-बारह अणुवेक्खा (७४) सच्चसि धिई कुवह।। एत्थोवरए मेहावी सव्वं वाव कम्म झोसेति ॥ सत्य को धारण कर, उससे विचलित न हो। सत्य में रत रहने वाला मेधावी सर्व पाप कर्म का शोषण कर डालता है।
-आचाराङ्ग ( १/३/२) पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर ।
-आचाराङ्ग ( १/३/३) सच्चस्स आणाए उवहिए से मेहावी मारं तरंति ।
सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति ॥ जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेघावी मृत्यु के प्रवाह को तैर जाता है। सत्य का साधक धर्म को स्वीकार कर श्रेय का साक्षात् कर लेता है।
-आचाराङ्ग (१/३/३) अप्पणा सच्चमे सेज्जा। अपनी स्वयं की आत्मा के द्वारा सत्य का अनुसन्धान करो।
-उत्तराध्ययन (६/२) ___ भासियध्वं हियं सच्चे। सदा हितकारी सत्य-वचन बोलना चाहिये।
-उत्तराध्ययन ( १६/२७ ) सच्चेण देवदावो णवंति परिसस्स ठंति व वसम्मि।
सच्चेण य गहगहिदं मोएइ करेंति रक्खंच ॥ २६८ ]
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