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संयम, विराग, दर्शन और योग का अभाव-ये संवर के हेतु हैं ।
-जयधवला (१/६/५४ ) रुधियछिदसहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि। मिच्छनाइअभावे, तह जीवे संवरो होइ॥ जैसे जलयान के हजारों छेद बन्द कर देने पर उसमें पानी नहीं घुसता, वैसे ही मिथ्यात्व आदि के दूर हो जाने पर जीव में संवर होता है।
-नयचक्र ( १५५) मिच्छत्तासवदारं रुभइ सम्मत्तदिढकवाडेण । हिंसादिदुवाराणि वि, दिढवयफलिहहिं रुभति ॥ मुमुक्षुजीव सम्यक्त्व रूपी दृढ़ कपाटों से मिथ्यात्वरूपी आस्रव द्वार को रोकता है तथा दृढ़ व्रतरूपी कपाटों से हिंसा आदि द्वारों को रोकता है।
-जयघवला ( १/१०/५५) तवसा चेव ण मोक्खो, संवरहीणस्स होइ जिणवयणे । ण हु सोत्ते पविसंते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं ॥
यह जिन वचन है कि संवर विहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता : जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता ।।
-मूलाचार ( १८५४) कम्मासवदाराई, निरुभियच्वाइं इंदियाई च। हंतव्वा य कसाया, तिविहं तिविहेण मुक्खत्थं ॥ मोक्ष की प्राप्ति के लिए कर्म के आगमन-द्वारों-आश्रवों का तथा इन्द्रियों का तीन करण-मनसा, वाचा, कर्मणा-और तीन योग-कृत, कारित, अनुमति-से निरोध करो और कषायों का अन्त करो।
-मरण समाधि (६१६)
सज्जन सुयणो सुद्धसहावो मइलिज्जतो वि दुज्जणजणेण । छारेण दप्पणो विय अहिययरं निम्मलो होइ॥ ]
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