________________
दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो। मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा ॥ तण्हा हया जस्स न होइ लोहो ।
लोहो हओ जस्स न किंचणाई॥ जिसके हृदय में मोह नहीं, उसका दुःख नष्ट हो गया । जिसके हृदय में तृष्णा नहीं, उसका मोह भंग हो गया। जिसके चित्त में लोभ नहीं, उसकी तृष्णा समाप्त हो गयी और जो अपरिग्रही है उसका लोभ नष्ट हो जाता है ।
-उत्तराध्ययन ( ३२/८) जह कच्छुल्लो कच्छु कंडयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं ।
मोहाउरा मणुस्सा, तह काम दुहं सुहं विति ॥ जैसे खुजली का रोगी खुजलाने के दुःख को भी सुख मानता है वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दुःख को सुख मानता है।
-उपदेशमाला ( २१२)
यतना
जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव ।
तव्वुड्ढीकरी जयणा, एगंत सुहावहा जयणा ॥ यतनाचारिता धर्म की जननी है। यतनाचारिता धर्म की पालनहार है । यतनाचारिता धर्म को, तप को बढाती है और यतनाचारिता ही एकान्त सुखावह है।
-संबोधसत्तरि (६७) चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो । यदि मनुष्य प्रत्येक कार्य यतना से करता है, तो वह जल में कमल की भाँति निर्लिप्त रहता है।
--प्रवचनसार ( ३/१८) जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासतो, पावं कम्मं व बंधइ ॥
[ २२६
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org