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रागहोसपमत्तो, इंदियवसओ करेई कम्माई । राग-द्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होकर निरन्तर कर्म-बन्धन करता रहता है।
-मरणसमाधि (६१२) दुक्खाण खाणी खलु रागदोसा । यथार्थतः राग-द्वेष ही दुःखों का उद्गम-स्थल है ।
-आत्मावबोधकुलक ( १२) ण सक्का ण सोउं सद्दा सोत्तविसयमागया।
राग-दोसा उजे तत्थ ते भिक्खु परिवज्जए। कर्ण-प्रदेश में आए हुए शब्द श्रवण न करना शक्य नहीं है, किन्तु उनके सुनने पर उनमें जो राग-द्वेष उत्पत्ति होती है, भिक्षु उसका परित्याग करे।
-आचारांग ( २/३/१५/१३० ) ण सक्का रूपमदहें चक्खूविसयमागतं ।
राग-दोसा उजे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए । नेत्रों के विषय बने हुए रूप को न देखना तो शक्य नहीं है, वे दिख ही जाते हैं, किन्तु उसके देखने पर जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, भिक्षु उनका परित्याग करे अर्थात् राग-द्वेष का भाव उत्पन्न न होने दे।
-आचाराङ्ग ( २/३/१५/१३१) ण सका गंधमग्घाउं, णासासियमागयं ।
राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खु परिवज्जए॥ ऐसा नहीं हो सकता कि नासिका-प्रदेश के सान्निध्य में आए हुए गन्ध के परमाणु-पुद्गल सूंघे न जायँ, किन्तु उनको सूंघने पर उनमें जो राग-द्वेष समुत्पन्न होता है, भिक्षु उनका परित्याग करें।
-आचारांग ( २/३/१५/१३२ ) ण सक्का रसमणासातुं जीहाविसयमागतं । राग-दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खु परिवज्जए॥
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