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के लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे। और जब लाभ न होता दीखे तो परिज्ञान पूर्वक धर्म-साधना के साथ शरीर को छोड़ दे।
-उत्तराध्ययन (४/७), आहञ्च चंडालियं कटु, न निण्हविज्ज कयाइ वि ।
कडं 'कडे' त्ति भासेज्जा, अकडं 'नो कडे' त्ति य॥ आवेशवश यदि साधक कोई चाण्डालिक-गलत व्यवहार कर भी ले तो उसे कभी भी न छिपाए । किया हो तो 'किया' कहे और न किया हो तो 'नहीं किया' कहे।
- उत्तराध्ययन ( १/११) निरुवलेवा गगणमिव,
निरावलंबा अणिलो इव । साधक आकाश के समान निरवलेप और पवन के समान निरावलंब होते हैं।
–औपपातिक सूत्र ( २७) अहमवि नाणदसणचरित्त, चरित्तविणए तहेव अज्झप्पे । जे पवरा होति मुणी, ते पवरा पुंडरीया उ॥
जो मुनी अध्यात्मभाव रूप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं विनय में श्रेष्ठ है, वे ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ पुंडरीक कमल है ।
-सूत्रकृतांग-नियुक्ति ( १५६) खंतो अ मद्दवऽज्जव विमुत्तया तह अदीणय तितिक्खा। आवस्सगपरिसुद्धी अ होति भिक्खुस्स लिंगाई।
क्षमा, मृदुता, सरलता, निर्लोभता, अदीनता तितिक्षा और आवश्यक क्रियाओं की परिशुद्धी-ये सब भिक्षु के चिह्न हैं ।
--दशवैकालिक-नियुक्ति (३४६) जो सो मणप्पसादो, जायइ सो निज्जरं कुणति । साधना में मानसिक निर्मलता अनिवार्य है, वही कर्म-निर्जरा का कारण है।
- व्यवहारभाष्य-पीठिका (६/१६०) २५६ ]
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