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सम्यक् गुम्फित है, उस श्रुतज्ञान रूपी महासिन्धु को मैं भक्तिपूर्वक सिर नवाकर प्रणाम करता हूँ ।
श्रुतज्ञान सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है ।
सव्वणाणुत्तरं सुयणाणं ।
आसासो वीसासो, सीयघर समोय होइ मा भाहि । अम्मापतिसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं ॥
- लघुश्रुत भक्ति ( ४ ),
- उत्तराध्ययन चूर्णि ( १ )
संघ भयभीत मनुष्यों के लिए आश्वासन, निश्छल व्यवहार के कारण विश्वासभूत, सर्वत्र समता के कारण शीतगृह समान, अविसमदर्शी होने के कारण माता-पिता तुल्य तथा सबके लिए शरणभूत होता है ।
-- व्यवहारभाष्य ( ३२६ )
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दंसणणाण चरित्ते, संघायंतो हवे संघो ।
जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र का संग्रहण करता है, इस रत्नत्रय की समन्वित करता है वह संघ है ।
- भगवती - आराधना ( ७१४ )
गुण-भवण- गहण ! सुयरयण - भरिय ! दंसण विसुद्ध रत्थागा । संघनगर ! भङ्कं ते, अखण्ड-चारित्त - पागारा ॥
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संघ
है ।
पिण्ड विशुद्धि, समिति, भावना, तप आदि भव्य भवनों से संघनगर व्याप्त श्रुत-शास्त्र रत्नों से भरा हुआ है, विशुद्ध सम्यक्त्व ही स्वच्छ वीथियाँ हैं, निरतिचार मूलगुण रूप चारित्र ही जिसके चारों ओर प्रकोटा है, इन विशेषताओं से युक्त हे संघनगर ! तेरा भद्र हो ।
अप्पडिश्चक्कस्स जओ होउ, सया संघ चक्कस्स ।
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- नन्दी सूत्र ( ४ )
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