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मुहुत्तदुक्खा हु हवंति कंटया, अओभया ते वितओ सुउद्धरा। वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥
कांटे मुहुर्तभर दुःखदायी होते हैं और वे भी पैर से सहजतया निकाले जा सकते हैं, किन्तु दुर्वचन रूपी कांटे निकालने बहुत कठिन है, वे तो उल्टे वैर-परम्परा को बढ़ावा देनेवाले और भयोत्पादक होते हैं।
-दशवैकालिक (६/३/७) समावयन्ता वयणाभिधाया कपणं गया दुम्मणियं जयन्ति ।
विरोधियों की ओर से पड़नेवाली दुर्वचनों की चोटें कानों में पहुंचकर बड़ी मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाती हैं और उसे सुनते ही मन दुमन हो जाता है ।
__ -दशवैकालिक (६/३/८) हिदमिदवयणं भासदि, संतोसकरं तु सव्वजीवाणं । साधक हमेशा दूसरों को सन्तोषकारक, हितकारी और मित वचन बोलता है।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( ३३४ ) गुणसुट्टियस्स वयणं, घयपरिसित्तुन्व पावओ भाइ ।
गुणहीणस्स न सोहइ, नेह विहूणो जह पईवो ॥ . गुणवान मनुष्य की वाणी घृतसिञ्चित अग्नि के समान तेजस्विनी होती है, जबकि गुणहीन मनुष्य की वाणी स्नेह रूपी तैल से रहित दोपक के समान तेज और प्रकाश शून्य होती है ।।
-बृहत्कल्पभाष्य ( २४५) निरा हि संखारजुयापि संसती ।
अपेसला होइ असाहुवादिणी। यदि सुसंस्कृत भाषा भी असभ्यतापूर्वक बोली जाती है तो वह भी जुगुप्सित हो जाती है।
—बृहत्कल्पभाष्य (४११८) पुब्धि बुद्धीए पासेत्ता, तत्तो वक्कमुदाहरे । अफ्खुओ व नेयारं, बुद्धिमन्नेसए गिरा॥
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