Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 270
________________ शील ही उत्तम धन है, शील ही परम मंगल रूप है, शील ही दुःख दारिद्र यः हर्ता है और शील ही सकल सुखों का धाम है ।। -शीलकुलकम् (२) सीलं धम्म निहाणं, सीलं पावाणखंडणं भणियं । सीलं जंण जतूए, अकित्तिमं मंडणं परमं ॥ शील धर्म-निधान है, शील पाप खण्डनकारी है, शील जगत में मनुष्य का अकृत्रिम शृंगार है। -शीलकुलकम् (३) नरयदुवार निरु भण-कवाडसंपुडसहोअरच्छायं । सुरलोअधवल मंदिर-आरुहणे पवरनिस्सेणि ॥ शील नरक-द्वार को वन्द करने में कवाड़ जोड़ की तरह जबरदस्त है और देवलोक के उज्ज्वल विमानों पर आरूढ़ होने के लिए उत्तम निसैनी के समान है। -शीलकुलकम् (४) सव्वेसि पि वयाणं भग्गाणं अस्थि कोइ पडिआरे । पक्कछ उस्स व कन्ना, ना होइ सीलं पुणो भग्गं ॥ अन्य सब व्रत भंग होने पर उनका कोई न कोई उपाय हो सकता है, किन्तु पके हुए घट की टूटी हुई ठीकरी को पुनः जोड़ने के समान भञ्जित शील को पुनः जीवन से जोड़ना दुःशक्य है। -शीलकुलकम् (१८) सीलेण विणा विसया, णाणंविणासंति । शील के बिना इन्द्रियों के विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं । --शीलपाहुड़ (२) जीवदयादम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे। सम्मइंसण णाणं तओ य सीलस्स परिवारो॥ जीव दया, इन्द्रिय-दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सम्यग् दर्शन, ज्ञान, तप-ये सभी शील के परिवार है। . -शीलपाहुड़ (१६) २५० ) Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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