Book Title: Prakrit Sukti kosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jayshree Prakashan Culcutta

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Page 265
________________ वेश्या का शरीर रक्त (अनुरक्त ) होता है, हृदय नहीं ( वह शरीर से प्रणय का अभिनय करती है, वस्तुतः मन से अनुरक्त नहीं होती । ) -वजालग्ग (५७८ / २ ) वैयावृत्य ( सेवा ) वैयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मनिबंधइ । वैयावृत्य से आत्मा तीर्थंकर पद को प्राप्त करता है । - उत्तराध्ययन ( २६ / ४४ ) सेज्जागासणिसेज्जा - उबधीपडिलेहणा उचग्गहिदे । आहारो सहवायण, विकिंचणुव्वत्तणादीसु ॥ उद्घाण तेण सावयरायणदीरोधगासिवे ऊमे । वेजावच्चं उत्त, संगहणा रक्खोवेदं ॥ वृद्ध गुरु व ग्लान गुरु या अन्य साधुओं के लिए सोने व बैठने का स्थान ठीक करना, उनके उपकरणों का शोधन करना, निर्दोष आहार व औषध आदि देकर उनका उपकार करना, उनकी इच्छानुसार उन्हे शास्त्र पढ़कर सुनाना, अशक्त हों तो उनका मैल उठाना, उन्हें करवट दिलाना, सहारा देकर बैठाना आदि । थके हुए साधु के हाथ-पाँव आदि दबाना, नदी से रुके हुए अथवा -रोग से पीड़ित साधुओं के उपद्रव यथा सम्भव मंत्र विद्या व औषध आदि के द्वारा दूर करना, दुर्भिक्ष पीड़ित को सुभिक्ष देश में ले जाना आदि सभी कार्य वैयावृत्य कहलाते है । Jain Education International 2010_03 -भगवती आराधना ( ३०५ / ३०६ ) गुण परिणामो सड्ढा, वच्छलं, भत्तीपत्तलंभो य । संघाण तव पूया अव्वोच्छित्ती समाधी य ॥ वैयावृत्य तप में अनेक सद्गुणों का वास है अथवा इससे अनेक सद्गुणों की प्राप्ति होती है । यथा-गुणग्राह्यता, श्रद्धा, भक्ति, प्राप्ति, विच्छिन्न सम्यक्त्व आदि गुणों का पुनः संधान, अव्युच्छित्ति, समाधि आदि । वात्सल्य सपात्र की तप, पूजा, तीर्थ की For Private & Personal Use Only '[ २४५ www.jainelibrary.org

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