________________
मजीठ के रंग के समान जीवन में कभी नहीं छूटनेवाला लोभ, आत्मा को नरकगंति की ओर ले जाता है ।
-स्थानांग (४/२) इच्छालोभिते मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू । लोभ मोक्षमार्ग का बाधक है ।
-स्थानांग (६/३) जहा लाहो तहा लोहो।
लाहा लोहो पवड्ढई ॥ जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ भी निरंतर बढ़ता जाता है ।
-उत्तराध्ययन (८/१७) . लोभ विजएण संतोसं जणयई । लोभ पर विजय प्राप्त कर लेने से सन्तोष प्राप्त होता है ।
-उत्तराध्ययन ( २६/७०)
लोमी लखो लोलो भणेज्ज अलियं । लोभी व्यक्ति लोभवश होकर असत्य बोलता है ।
---प्रश्नव्याकरण-सूत्र ( २/२) सुवण्णरूपस्स उपव्वया भवे, सियाहु कैलास समा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहि किं चि, इच्छा हू आगाससमा अणंतिया ॥
रजत और स्वर्ण के कैलाश पर्वत के समान विशाल एवं असंख्य पर्वत भी यदि पास में हों तो भी लोभी मानव की तृप्ति के लिये वे कुछ नहीं हैं, क्योंकि इच्छा गगन के समान अनन्त है।
-उत्तराध्ययन ( ३/४८) लोभपत्ते लोभी समा वइज्जा मोसं वयणाए । लोभी लोभ के प्रसंग में झूठ का आश्रय ग्रहण कर लेता है ।
-आचारांग ( २/३/१५/२)
२३६ ]
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org