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चडावर
सूर्यास्त से लेकर पुनः सूर्य पूर्व में न निकल आए तब तक सब प्रकार के खाने-पीने की मन से भी इच्छा न करें।
-दशवैकालिक (८/२८) चउब्धिहे वि आहारे, राइभोयणवजणा । अन्न, पान, खादिम और स्वादिम रूप चतुर्विध आहार का रात्रि में सेवन नहीं करना चाहिए।
-उत्तराध्ययन ( १६/३०) राईभोयणविरओ जीवो भवइ अणासवो। रात्रि-भोजन से विरत जीव अनाश्रव होता है ।
-उत्तराध्ययन ( ३०/२) जो णिसि भुति सो उपवासं करेदि छम्मासं । जो पुरुष रात्रि-भोजन को छोड़ता है वह एक वर्ष में छह महीने तो उपवास ही करता है।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( ३८३)
लगन
जाव य ण देन्ति हिययं पुरिसा कजाई ताव विहणंति । अह दिण्णं चिय हिययं गुरु' पि कज्जं परिसमत्तं ॥
जब तक साहसी पुरुष कार्यों की तरफ अपना हृदय अर्थात् ध्यान नहीं देते हैं, तभी तक कार्य पूरे नहीं होते हैं, किन्तु उनके द्वारा कार्यों के प्रति हृदय लगाने से बड़े कार्य भी पूर्ण कर लिये जाते हैं ।
--कुवलयमाला ( अनुच्छेद ३३ )
लोम. किमिरागरत्तवत्थ समाणं लोभं अणुपविठे । जीवे कालं करेइ णेरइएसु उववजति ॥
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