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सत्तू विसं पिसाओ, वेआलो हुअवहो पिपजलिओ । तं न कुणइ जं कुविआ, कुणंति रागाइणो देहे ||
शत्रु, विष, पिशाच, वेताल, प्रज्ज्वलित अग्नि- ये सब एक साथ कोपायमान होने पर भी शरीर में उतना अपकार - अवगुण नहीं करते जितना अपकार कुपित राग-द्वेष रूप अन्तरंग शत्रु करते हैं ।
- इन्द्रियपराजय- शतक ( ८६ ) जो रागाईण वसे, वसंमि सो सयलदुक्खलक्खाणं । जस्स वसे रागाई, तस्स वसे सयलसुक्खाई ॥ जो राग-द्वेषादि के वश में है, वह वस्तुतः लाखों दुःखों के वशीभूत है और जिसने राग-द्वेष को वश में कर लिया है, उसने वस्तुतः सब सुखों को वश में कर लिया है
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जिन्भाए रसं गहणं वयंति,
तं राग हेउं तु मणुन्नमाहु | तं दोसहेउं अमणुन्नमाद्दु ।
रस जिह्वा का विषय है । यह जो रस का प्रिय लगना है उसे राग का हेतु कहा है और यह जो रस का अप्रिय लगना है, उसे द्वेष का हेतु |
- उत्तराध्ययन ( ३२/६१ ) नवितं कुणइ अमित्तो, सुठु विय विराहिओ समत्यो वि । जं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥ अत्यन्त तिरस्कृत समर्थं शत्रु भी उतनी हानि नहीं पहुँचाता, जितनी हानि निगृहीत राग तथा द्वेष पहुँचाते हैं ।
- इन्द्रियपराजय- शतक (८७)
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बहुभयंकरदोसाणं, सम्मत्तचारित गुणविणासाणं । न हु वसमागंतव्वं, रागद्दोसाण
पावाणं ॥
सम्यक्त्व और चारित्र गुणों के विनाशक, अत्यधिक भयंकर रागद्वेष रूपी पापों के वश में कदापि नहीं होना चाहिये ।
- मरणसमधि ( २०३ )
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- मरणसमाधि ( १६८ )
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