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ण वि कम्मं णोकम्म ण वि चिंता व अट्टहाणि । ण वि धम्म सुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं॥
जहाँ न कर्म हैं न नोकर्म शरीर, न चिंता है न आत-रौद्र ध्यान है, एवं न धर्मध्यान हैं एवं न शुक्लध्यान-वही निर्वाण है।
-नियमसार ( १८१ ) णिव्वाणं “ति अवाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव य ।।
खेमं सिवं अणाबाहं जं घरंति महेसिणो ॥ जिसे महषि प्राप्त करते हैं वह स्थान निर्वाण है, अबाध है, सिद्धि हैं, लोकाग्र है, क्षेत्र, शिव और अनाबाध है ।
-उत्तराध्ययन ( २३/८३) न य संसारम्मि सुह, जाइजरा मरणदुक्ख गहियस्स । जीवस्स अस्थि जम्हा, तम्हा मुक्खो उवादेओ ।।
इस संसार में जन्म, जरा, और मरण के दुःख से ग्रस्त जीव को कोई सुख नहीं है। अतः मोक्ष ही उपादेय है ।
--सावय-पण्णति ( ३६०)
मोक्षमार्ग सवारंभ-परिग्गहणिक्खेवो, सन्वभूत समयाय ।
एक्कग्गमणसमाहाणयाय, अह एत्तिओ मोक्खो॥ सब तरह की हिंसा, एवं संग्रह का त्याग, प्राणी मात्र के प्रति समभाव और चित्त की एकाग्रता रूप समाधि-बस इतना मात्र मोक्ष है।
-बृहत्कल्प भाष्य (४५८५) तं जइ इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स |
तो तवसंजमभंडं, सुविहिय ! गिण्हाहि तूरंतो॥ यदि तु घोर भवसागर के पार तट पर जाना चाहता है, तो हे सुविहित ! शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर ।
-मरणसमाधि ( २०२) २२४ ]
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