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कम्मासवदाराई, निरुभियन्वाइं इंदियाई च। हंतवा य कसाया, तिविह-तिविहेण मुक्खत्थं ॥ मोक्ष की प्राप्ति के लिए कर्म के आगमन द्वारों-आस्रवों का तथा इन्द्रियों का तीन करण ( मनसा, वचसा, कर्मणा) और तीन योग (कृत, कारित, अनुमोदित ) से निरोध करो और कषायों का अन्त करो।
-मरणसमाधि (६१६) नाण किरियाहिं मोक्खो। ज्ञान और आचार से ही मोक्ष मिलता है ।।
-विशेषावश्यक-भाष्य (३) जीवादीसदहणं, सम्मत्तं तेसिमधिगमो नाणं ।
रायादीपरिहरणं चरणं, एसो दु मोक्खपहो । जीवादि नव तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है तथा उनकी सामान्य-विशेष रूप से अवधारणा करना सम्यक् ज्ञान है। राग, द्वेष आदि दोषों का परिहार करना सम्यक् चारित्र है और ये तीनों मिलकर समुचित रूप से एक अखंड मोक्षमार्ग है।
-- रयणसार ( १५५) चउरंगं दुल्लहं णच्चा, संजमं पडिवाज्जिया ।
तवसाधुय कम्मंसे, सिद्ध हवइ सासए ॥ मनुष्य-जन्म, धर्म-श्रवण, श्रद्धा व संयम इन चार बातों को उत्तरोत्तर, दुर्लभ जानकर वह संयम धारण करता है, तप से कर्मों का क्षय करता है और इस प्रकार शनैः शनैः शाश्वत गति को प्राप्त करने में सफल हो जाता है ।
-उत्तराध्ययन (३/२०)
नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा।
एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गई। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप चतुष्टय अध्यात्म-मार्ग का अनुसरण कर मुमुक्षु-साधक जीव सदेह होने पर भी सुगति को, वीतराग-दशा या मुक्तअवस्था को प्राप्त करता है ।
. -उत्तराध्ययन (२८/३)
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