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हित, मित, नम्र और विचारपूर्वक बोलना वचन का विनय है । - दशवेकालिक नियुक्ति ( ३२२ ) सुदसीलेसु गारवं किंखि । मद्दवधम्मं हवे तस्स ॥
जो श्रमण कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुत और शील का तनिक भी गर्व नहीं करता, उसके मार्दव-धर्म होता है ।
कुल रुवजादि बुद्धिसु, तव
जो णवि कुव्वदि समणो,
जह दूओ रायाणं, णमिउं कज्जं निवेइउं पच्छा । वीसज्जिओ वि वंदिय, गच्छइ साहूवि एमेव ॥
- बारह अणुवेक्खा ( ७२ )
जैसे दूत राजा के समक्ष निवेदन करने से पहले भी और पीछे भी नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य को भी गुरुजनों के समक्ष जाते और समय नमस्कार करना चाहिये ।
- आवश्यक - नियुक्ति ( १२३४ )
धम्मस्समूलं विणयं वदंति, धम्मोय मूलं खलु सोग्गईए 1 धर्म का मूल है 'विनय' और धर्म का मूल है— 'सद्गति' ।
- बृहत्कल्पभाष्य (४४४१ )
सोहधबलियदियंत ओपुरिसो । आदिज्ज वयणो य ॥
विणरण ससंकुज्जलज सव्वत्थ हवs सुहओ तहेव विनय से मनुष्य चन्द्रमा के समान उज्ज्वल यश समूह से दिगन्त को वलित करता है, सर्वत्र सभी का प्रिय हो जाता है तथा उसके वचन सर्वत्र आदरणीय होते हैं ।
विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजमो भवे । चियाओ चिप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तचो ?
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- वसुनन्दि-श्रावकाचार ( ३३२ )
विनय जिनशासन का मूलाधार है, विनयसम्पन्न व्यक्ति ही संयमी हो सकता है । जो विनय से हीन है, उसका क्या धर्म और क्या तप ?
- विशेषावश्यक भाष्य ( ३४६८ )
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