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जो ण वि वह रागे, ण वि दोसे दोण्ह मज्झयारंमि ।
सो होइ उ ममत्थो, सेसा सब्वे अमज्मत्था ।। जो न राग करता है, न द्वेष करता है, वही वस्तुतः मध्यस्थ है । शेष सब अमध्यस्थ है।
-आवश्यक-नियुक्ति (८०४) वीयरागयाएणं नेहाणुबंधणाणि ।
तण्हाणु बंधणाणि य वेच्छिदइ । वीतराग भाव की साधना से राग के बंधन और तृष्णा के बंधन कट जाते हैं।
__ -उत्तराध्ययन ( २६/४५) समो य जो तेसु सवीयरागो । जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दादि विषयों में सम रहता है, वह वीतराग है ।
उत्तराध्ययन ( ३२/६१), जिब्भाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाह, समो यजो तेसु स वीयराओ ।
रस जिह्वा का विषय है। यह जो रस का प्रिय लगना है, उसे राग का हेतु कहा है और जो रस का अप्रिय लगना है उसे द्वेष का हेतु । जो दोनों में समभाव रखता है, वह वीतराग है ।
.. -उत्तराध्ययन ( ३२/६१), एविदियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो । ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेंति किंचि । ___ मन एवं इन्द्रियों के विषय, रागात्मा को ही दुःख के हेतु होते हैं । वीत-- राग को तो वे किंचित् मात्र भी दुःखी नहीं कर सकते।
-उत्तराध्ययन (३२/१००) कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। . जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो॥
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