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जइ विय णिगणे किसे चरे, जइ विय भुंजिय मासमंतसो। जे इह मायाई मिजइ, आगंता गम्भायणंतसो ॥
साधना के क्षेत्र में जो प्रगतिशील साधक वस्तुमात्र का परित्याग कर नग्न रहता है, वर्षों तक तपस्या करके जिसने शरीर का रक्त-मांस सुखा दिया है, महीनों तक निराहार रहकर जिसने देह को कृश बना डाला है, इतनी साधना के बावजूद जिसने माया की गांठ नहीं तोड़ी तो उसे अनन्त बार गर्भ में आना होगा, जन्म-मरण करना होगा।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/२/१/९)
जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जम्मजरामरणसंभवं दुक्खं ।
न य विसएसुचिरज्जई, अहो सुबद्धो कवडगंठी ॥ जीव जन्म और मरण से होनेवाले दुखि को जानता है, उसका विचार भी करता है, किन्तु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता। अहो ! माया की गाँठ कितनी सुदृढ़ होती है !
-उपदेश-माला (२०४ )
मित्र तं मित्तं कायध्वं जं किर वसणम्मि देसकालम्मि ।
आलिहियमित्तिबाउल्लयं व न परं मुहं ठाइ॥ मित्र उसे बनाना चाहिये जो भित्ति-चित्रवत् किसी भी सङ्कट और देशकाल में कभी विमुख न हो।
-वजालग्ग ( ६/४)
तं मित्तं कायचं जं मित्तं कालकंबलीसरिसं ।
उयएण धोयमाणं सहावरंगं न मेल्लेइ ।। उसे ही मित्र बनाना उपयुक्त है जो काले कम्बल के समान जल से धोये माने पर भी सहजरङ्ग को नहीं छोड़ता, उसका साथ नहीं छोड़ता है।
--वजालग्ग (६/५)
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