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चारित्र में विशेष रूप से स्थिर होता है। वे धन्य हैं जो जीवन-पर्यन्त गुरुकुलवास नहीं छोड़ते।
-बृहत्कल्पभाष्य (५७१३) जस्स गुरुम्मि न भती, न य बहुमाणो न गउरवं न भयं । न वि लज्जा न वि नेहो, गुरुकुलवासेण किं तस्स ?
जिसमें गुरु के प्रति न भक्ति है, न बहुमान है, न गौरव है, न भय है-न अनुशासन है, न लज्जा है और न ही स्नेह है, उसका गुरुकुल में रहने का क्या अर्थ है ?
----उपदेशमाला (७५)
गृहलक्ष्मी
परघरगमणालसिणी परपुरिसधिलोयणे य जच्चंधा । परआलावे बहिरा घरस्स लच्छी, न सा घरिणी॥
जो दूसरे के घर जाने के लिए आलस करनेवाली बन जाती है और जो परायी बात के लिए बहरी हो जाती है, वह घर की लक्ष्मी है, गृहिणी नहीं ।
-वज्जालग्ग (४८/२)
चतुभंगी
चत्तारि पुरिसजायारूवेणाम एगे जहइ णो धम्म, धम्मेणाम एगे जहइणो रुवं । एगे रूवे वि जहइ धम्मपि, एगे णो रुवं जहइ णोधम्म ।
चार प्रकार के पुरुष हैं-कुछ पुरुष वेष छोड़ देते हैं, किन्तु धर्म नहीं छोड़ते। कुछ धर्म छोड़ देते हैं; किन्तु वेष नहीं छोड़ते। कुछ वेष भी छोड़ देते हैं और धर्म भी। कुछ ऐसे होते हैं जो न वेष छोड़ते हैं और न धर्म ।
-व्यवहारसूत्र (१०) १०८ }
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