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दान
दाणेण फुरइ कित्ती, दाणेण होइ निम्मला कंती।
दाणावज्जिअहिअओ, वेरी वि हु पाणियं वहइ ॥ दान के द्वारा कीर्ति और निर्मल कांति बढ़ती है । दान से वशीभूत हुआ हृदयवाला दुश्मन भी दातार के घर पानी भरता है।
-दानकुलकम् (४) दाणं सोहग्गकर, दाणं अरुग्गकारणं परमं ।
दाणं भोगनिहाणं, दाणं ठाणं गुणगणाणं ॥ दान सुख-सौभाग्यकारी है, परम आरोग्यकारी है, पुण्य का निधान है और गुणपृक्ष का स्थान है।
-दानकुलकम् (३) दाणं मुक्खं सावयधम्मे। दान देना सद्गृहस्थ का धर्म है।
___-रयणसार (११) दाण भोयणमेत्तं, दिज्जइ धन्नो हवेइ सायारो।
पत्तापत्तविसेसं, संहसणे किं वियारेण ॥ जब भोजन मात्र का दान करने से भी गृहस्थ धन्य होता है ; तब इसमें पात्र और अपात्र का विचार करने से क्या लाभ ?
-रयणसार (१५) दिण्णइ सुपत्तदाणं विससतो होइ भोगसग्ग मही। णिव्वाण सुहं कमसो णिहिटुं जिणवरिदेहि ॥ सुपात्र को दान प्रदान करने से भोगममि तथा स्वर्ग के सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति होती है और अनुक्रम से मोक्ष-सुख की प्राप्ति होती है। ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है।
-रयणसार (१६) खेत्तविसमे काले वविय सुवीयं फलं जहा विउलं । होइ तहा तं जाणइ पत्तविसेसेसु दाणफलं ।।
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