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लगने वाले मनोहर भोग प्राप्त होने पर भी स्वाधीनतापूर्वक उनको पीठ दिखा देता है, अर्थात् सब प्रकार से प्राप्त भोगों को त्याग देता है ।
- दशवेकालिक (२/२)
णिव्वेदतियं भाव, मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवे वागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं ||
सब द्रव्यों में होनेवाले मोह को त्यागकर जो त्रिविध निर्वेद से अर्थात् संसार, शरीर तथा भोगों के प्रति वैराग्य, से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेश्वर ने कहा है ।
- बारस अणुवेक्खा (७८)
Fin
सरीरमाहु जीवो वुच्चर नाविओ ।
संसारो अण्णवो वुत्तो ॥
शरीर को नौका कहा गया है और जीव को नाविक तथा संसार को
समुद्र ।
- उत्तराध्ययन ( २३ / ७३ )
तओ ठाणाई देवे पीहेज्जा ।
माणुसं भवं, आरिए खेत्ते जम्मं, सकुल पच्चायांति ||
नाव
देवता भी तीन बातों की इच्छा करते रहते हैं— मनुष्य - जीवन, आर्य क्षेत्र में जन्म, और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति ।
- स्थानांग (३/३)
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त्रिवेणी
मा हससु परं दुहियं कुणसु दयं णिच्वमेव दीणम्मि । दूसरे दुःखी लोगों पर मत हँसो, हमेशा ही दीनों पर दया करो ।
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दया
— कुवलयमाला ( अनुच्छेद ८५ )
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