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बन्धन
दुविहे बंधे-पेज्ज बंधे चेव दोसबंधे चेव । बन्धन के दो भेद हैं-प्रेम का बन्धन और द्वेष का बन्धन ।
-स्थानाङ्ग ( २/४) हेमं वा आयसं वा वि, बंधणं दुक्खकारणा ।
महग्घस्सावि दंडस्स, णिवाए दुक्खसंपदा || बन्धन चाहे सोने का हो या लोहे का, बन्धन तो अन्ततः दुःखकारक ही है। बहुत मूल्यवान् डंडे का प्रहार होने पर भी दर्द तो होता ही है।
-इसिभासियाई (४५/५) जहा, जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो । निरुद्धजोगिस्स व से ण होति, अछिद्द पोतस्स व अंबुणाधे ॥
जैसे-जैसे मन,वाणी और शरीर के संघर्ष/योग अल्पतर होते जाते हैं, वैसेवैसे बन्ध भी अल्पतर होते जाते हैं। योगचक्र का पूर्ण निरोध होने पर आत्मा में बन्ध का अभाव हो जाता है। जैसेकि सागर में रहे हुए छिद्र-रहित जलयान में जलागमन का अभाव हो जाता है।
-~-बृहत्कल्पभाष्य ( ३६२६ ) सव्वभूयऽप्पभूयस्स, सम्म भूयाई पासओ |
पिहियासव्वस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई। जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मास्रव के सारे द्वार बन्दकर दिये हैं, उस संयमी को पापकर्म का बन्ध नहीं होता।
-- बृहत्कल्पभाष्य ( ४५८६)
बहिरात्मा अप्पाणाण झाण ज्झयण सुहमियरसायणप्पाणं ।
मोत्तूणक्खाणसुहं जो भुंजई सो हु बहिरप्पा ॥ १८० ]
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