________________
ब्रह्मचयरत भिक्षु को शृगार के लिए शरीर की शोभा और सजावट का कोई भी काम नहीं करना चाहिए।
-उत्तराध्ययन ( १६/६ ) देवदाणव गन्धवा, जक्खरक्खस किन्नरा।
बंभयारिं नमंसन्ति, दुक्करं जे करेन्ति तं । दुष्कर ब्रह्मचर्य की साधना के लिए सतत् सावधान तथा मनसा-वाचाकायेन ब्रह्मचारियों को देव, दानव गंधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर-सभी नमस्कार करते हैं।
- उत्तराध्ययन (१६/१६) विरई अबंभ चेरस्स, काम भोग रसन्नुणा ।
उग्गं महत्वयं बंभं, धरियव्वं सुदुक्करं ॥ जो मनुष्य काम और भोगों के रस को जानता है, उनका अनुभवी है, उसके लिए अब्रह्मचर्य त्यागकर ब्रह्मचर्य का महावत स्वीकार करना अति दुष्कर है।
-उत्तराध्ययन ( १६/२८) जहादवग्गी पउरिंधणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्सहियाय कस्सई ॥
जैसे बहुत ईंधन वाले जंगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त नहीं होती, वैसे ही मर्यादा से अधिक भोजन करने वाले किसी भी ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी के लिए भी हितकर नहीं होता।
-उत्तराध्ययन ( ३२/११) न रूवलावण्णा विलास हासं, न जंपियं इंगिय - पेहियं वा । इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता,
दह्र ववस्से समणे तवस्सी ॥ आत्म-शोधनार्थ श्रम करनेवाला तपस्वी श्रमण अपने चित्त में स्त्रियों का
[ १६१
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org