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जो मण्णदि पर-महिलं जणणी-बहिणी-सुआइ सारिच्छं। मण-वयणे कायेण वि बंभवई सो हवे थूलो ॥
जो मन-वचन और काया से परायी स्त्री को माता, बहिन और पुत्री के समान समझता है, वह स्थल ब्रह्मचर्य का धारी है।
___-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( २३८) महव्वदे मेहुणाओ वेरमणं । मैथुनविरमण ( ब्रह्मचर्य ) महावत है ।
-श्रमण-प्रतिक्रमण-सूत्र (१६) तम्हा उ वजए इत्थी, विसलित्तं व कण्टगं नच्चा। ब्रह्मचारी स्त्री-संसर्ग को विषलिप्त कंटकवत् समझकर उससे दूर रहे ।
-सूत्रकृतांग ( १/४/१/११) जडकुंभे जोइउव गूढे, आसुमितत्ते नासमुवयाइ ।
ए वित्थियाहि अणगारा संवासेण नासमुवयंति। जिस प्रकार लाख का घड़ा अग्नि से तप्त होने पर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार स्त्री-सहवास से साधु या साधक भी शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
-सूत्रकृतांग (४/१/२७) सुविसुद्ध-शील-जुत्तो, पावइ कित्ति जसं च इहलोए। सव्वजण वल्लहो च्चिय, सुह-गइ-भागी अपरलोए ।
अखण्ड ब्रह्मचारी इस लोक में यश-कीर्ति को प्राप्त करता है और सबका प्रिय होकर परलोक में मोक्ष का भागी होता है ।
-कामघट-कथानक ( १२६ )
ब्राह्मण
रमइ अजवयणम्मि, तं वयं चूम माहणं । आर्यजनों के वचनों में सदा अभिरुचि रखनेवाला ही ब्राह्मण है ।
-उत्तराध्ययन ( २५/२०)
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